मेडिकल से जुड़े डॉक्टरों, नर्सों और अन्य कर्मचारियों को सदैव अपने कार्य में सावधानी बरतने की जरूरत है। कारण कि छोटी-सी लापरवाही मरीज की जान ले लेगी और उसके बाद संबंधित लापरवाही करने वाले पर गाज गिरना स्वाभाविक है। इसी कड़ी में कानपुर में सरकारी अस्पताल की लापरवाही से 14 बच्चों की जिंदगी दांव पर लग गई है। संक्रमित ब्लड ट्रांसफ्यूजन की वजह से वे एड्स और हेपेटाइटिस जैसी घातक संक्रामक बीमारियों की चपेट में आ गए। बताया जा रहा है कि खून चढ़ाने से पहले उसका परीक्षण नहीं किया गया। दरअसल, पूरा मामला कानपुर के मेडिकल कॉलेज का है। हालांकि मेडिकल कॉलेज प्रशासन इस पूरे मामले को गलत बता रहा है। कानपुर में डॉक्टरों की लापरवाही ने 14 बच्चों की जिंदगी दांव पर लगा दी है।  इन बच्चों का खून बदलने के बाद लाला लाजपत राय अस्पताल में टेस्ट हुआ था। टेस्ट में ये सभी बच्चे हेपेटाइटिस-बी, हेपेटाइटिस-सी और एचआईवी के संक्रमण से पीड़ित मिले हैं। इससे स्वास्थ्य विभाग में हड़कंप मच गया है।  सभी पीड़ित बच्चे नाबालिग हैं। अस्पताल को उनके संक्रमित होने की जानकारी मिली है। इसके बाद यह जांच शुरू हो गई है कि संक्रमित होने का कारण क्या है। हालांकि पहली नजर में बच्चों के संक्रमण का कारण उन्हें खून चढ़ाए जाने से पहले डोनेशन के तौर पर मिले खून के वायरस टेस्ट में लापरवाही बरतने का पता लगा है।

स्वास्थ्य विभाग के सूत्रों का कहना है कि पक्के तौर पर संक्रमण का कारण पिनपॉइंट करना बेहद मुश्किल है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि इन सभी को ब्लड ट्रांसफ्यूजन के दौरान यह बीमारी लगी है या बीच में निजी अस्पतालों में ट्रांसफ्यूजन के दौरान ये संक्रमण की चपेट में आए हैं। इन बच्चों में से सभी की उम्र 6 साल से 16 साल के बीच है, इनमें 7 बच्चों को हेपेटाइटिस-बी से, 5 को हेपेटाइटिस-सी से और 2 को एचआईवी से पीड़ित पाया गया है। ये सभी बच्चे कानपुर शहर, कानपुर देहात, फर्रूखाबाद, औरेया, इटावा और कन्नौज और अन्य जनपद के रहने वाले हैं।  अस्पताल के पीडियाट्रिक्स विभाग के एचओडी डॉ. अरुण आर्या के मुताबिक बच्चों में ऐसे गंभीर संक्रमण के लक्षण मिलना चिंता की बात है।  हालांकि ब्लड ट्रांसफ्यूजन में यह रिस्क बना रहता है। उधर संक्रमण के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने केद्र्र सरकार पर निशाना साधा है। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि डबल इंजन सरकार ने हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को डबल बीमार कर दिया है। दूसरी ओर  थैलेसीमिया एक आनुवांशिक रोग है जो कि बच्चों को माता-पिता से मिलता है। इस रोग के होने पर शरीर की हीमोग्लोबिन निर्माण प्रक्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिसके कारण एनीमिया के लक्षण प्रकट होते हैं, इसकी पहचान तीन माह की आयु के बाद ही होती है, इसमें रोगी बच्चे के शरीर में रक्त की बहुत ज्यादा कमी होने लगती है जिसके कारण उसे बार-बार बाहरी खून चढ़ाने की जरूरत होती है।

कानपुर के जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज में ब्लड बैंक की प्रभारी डॉक्टर लुबना खान की मानें तो यहां किसी भी मरीज को ब्लड चढ़ाने से पहले उसकी अच्छी तरह से जांच की जाती है। साथ ही जो ब्लड यहां के बैंक में लिया जाता है उसकी भी सही तरीके से जांच होती है। उनका कहना है कि ब्लड बैंक में आने वाले हर यूनिट का एलिजा टेस्ट और फिर एनएटी यानी न्यूक्लिक एसिड एम्पि्लफिकेशन टेस्ट होता है। ऐसे में संक्रमण होने का कोई सवाल ही नहीं है। साथ ही मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल इसे अफवाह बता रहे हैं, लेकिन यह पूरा मामला ब्लड डोनेशन और फिर बगैर संक्रमण के रोगियों को चढ़ाने तक की प्रक्रिया में कई तरह की खामियों को दर्शाता है। हालांकि ब्लड बैंकों में डोनेट किए गए खून की पूरी जांच के बाद ही उसे लिया जाता है। ब्लड डोनेशन कैंपों से ब्लड लेने वाले भी पूरी जांच के बाद ही ब्लड बैंक को देते हैं और बैंक उनके गैर संक्रमित होने पर ही उसे स्वीकार करते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पीड़ित बच्चों का बेहतर ढंग से इलाज करवाकर उन्हें नए संक्रमण से मुक्त कराने की जरूरत है और भविष्य में कोई ऐसी गलती न दोहरा पाए, इसकी पूरी व्यवस्था होनी चाहिए।