जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए चरमपंथी हमले को लेकर रविवार को चीनी विदेश मंत्री वांग यी और पाकिस्तानी उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इसहाक़ डार के बीच फोन पर हुई बातचीत के बाद मीडिया में दावा किया जाने लगा कि चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा है। ये दावा सिर्फ  इस आधार पर हो रहा है कि चीन ने पाकिस्तान की 'निष्पक्ष जांच' वाली मांग का समर्थन किया है।चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अंग्रेजी दैनिक ग्लोबल टाइम्स ने लिखा- 'चीन उम्मीद करता है कि दोनों पक्ष (भारत और पाकिस्तान) इस मामले में संयम बरतेंगे। अब अहम सवाल यह है कि अगर जंग हुई तो चीन पाकिस्तान के साथ खड़ा होगा अगर बात करगिल जंग (1999) की करें तो तब चीन ने पाकिस्तान का खुलकर या प्रत्यक्ष रूप से सैन्य या राजनयिक समर्थन नहीं किया था। भले ही चीन और पाकिस्तान के बीच गहरे रणनीतिक संबंध हैं, जिन्हें अक्सर 'सदाबहार दोस्ती' कहा जाता है। पाकिस्तान तो चीन के साथ अपने संबंधों को लेकर बड़े-बड़े दावे करता है। पाकिस्तान के नेता हर संकट के वक्त बीजिंग पहुंच जाते हैं कटोरा लेकर। दरअसल कारगिल संघर्ष के दौरान चीन की प्रतिक्रिया काफी सधी हुई थी। चीन ने तब भी आधिकारिक तौर पर भारत और पाकिस्तान से संयम बरतने और बातचीत से जटिल मामलों को हल करने का आग्रह किया था। यानी चीन उस समय पाकिस्तान के साथ खड़ा नहीं हुआ था। चीन ने नियंत्रण रेखा का सम्मान करने का दोनों पक्षों से आग्रह किया था। यह परोक्ष रूप से पाकिस्तान की आलोचना थी, क्योंकि पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करके भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की थी। चीन बहुत सोच-समझकर ही खुलकर किसी देश के साथ खड़ा होता है।जानकारों का कहना है कि जब करगिल युद्ध के समय तत्कालीन पाकिस्तानी सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ समर्थन मांगने चीन गए, तो चीनी नेतृत्व ने उन्हें पीछे हटने और मामले को शांतिपूर्वक सुलझाने की सलाह दी। चीन इस संघर्ष को बढ़ते हुए नहीं देखना चाहता था। चीन का मत था कि दो परमाणु-सशस्त्र पड़ोसियों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध रहने चाहिए। दरअसल तब चीन ने पाकिस्तान की कार्रवाई की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं की थी, पर उसने पाकिस्तान की करगिल में सैन्य घुसपैठ का समर्थन भी नहीं किया था। उसने बातचीत के जरिए तनाव कम करने पर जोर दिया था। इसलिए, यह कहना गलत होगा कि चीन ने करगिल युद्ध में पाकिस्तान का साथ दिया था।हां, 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों में चीन ने पाकिस्तान का कह सकते हैं समर्थन किया था, लेकिन 'खुलकर साथ' होने की व्याख्या थोड़ी जटिल है और दोनों युद्धों में उसकी भूमिका थोड़ी अलग थी। चीन ने 1965 की जंग के वक्त भारत की कड़ी आलोचना की और पाकिस्तान को अपना पूर्ण राजनयिक समर्थन दिया। चीन ने भारत पर सिक्किम सीमा पर उल्लंघन का आरोप लगाते हुए सैन्य कार्रवाई की धमकी दी। उसने सीमा के पास अपनी सेना की कुछ गतिविधियां भी बढ़ाईं, जिससे भारत पर दूसरा मोर्चा खुलने का दबाव बना। यह पाकिस्तान के लिए एक महत्वपूर्ण नैतिक और रणनीतिक समर्थन था। हालांकि चीन ने धमकियां दीं और दबाव बनाया, लेकिन उसने भारत के खिलाफ सीधे तौर पर कोई बड़ी सैन्य कार्रवाई नहीं की। उसका समर्थन मुख्यत: राजनयिक और मनोवैज्ञानिक दबाव तक ही सीमित रहा। तो कह सकते हैं कि चीन 1965 में खुलकर पाकिस्तान के पक्ष में था, उसने राजनयिक समर्थन दिया और सैन्य दबाव भी बनाया, लेकिन वह सीधे युद्ध में शामिल नहीं हुआ।चीन ने 1971 में भी पाकिस्तान का राजनयिक समर्थन जारी रखा। हालांकि 1971 में चीन का दबाव काफी कम था। कूटनीति मामलों के जानकार इसका एक अहम कारण बताते हैं- भारत-सोवियत संधि (1971)। इस संधि ने चीन को हतोत्साहित किया, क्योंकि भारत पर हमले की स्थिति में सोवियत संघ के हस्तक्षेप की संभावना थी। चीन उस समय सोवियत संघ के साथ तनावपूर्ण संबंध रखता था। इसके साथ ही सर्दियों में हिमालय के दुर्गम दर्रों से बड़े पैमाने पर सैन्य कार्रवाई करना चीन के लिए बहुत मुश्किल था। मतलब चीन ने 1971 में भी कोई सीधा सैन्य हस्तक्षेप नहीं किया।एक बात समझ लें कि भले ही भारत-चीन के बीच सीमा विवाद है, पर चीन को मालूम है कि भारत उसके उत्पादों के लिए एक बड़ा बाजार है। यह बात उसे आजकल खासतौर पर समझ आ रही होगी। भारत-चीन के बीच आपसी व्यापार तो कुलांचे भर रहा है, पर इससे भारत को फायदा नहीं हो रहा है। नुकसान इस लिहाज से होता है कि हम उससे जितना माल खरीदते हैं, उस तुलना में बेहद कम उसे बेचते हैं। ऐसे में जान लें कि चीन युद्ध की स्थिति में पाक का खुलकर साथ नहीं देगा। 

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