इन दिनोंं बिहार में कराई गई जातिगत गणना और उसके बाद सदन में पेश आर्थिक और सामाजिक सर्वे की खूब चर्चा है। सामाजिक और आर्थिक सर्वे ने आम लोगों की सच्चाई सामने लाकर रख दी है। इस रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है कि इस राज्य के विकास के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को जो करना चाहिए था, वह नहीं किया। परिणामत: यह समुदाय कई दशकों से बदहाल है और आजाद भारत में उसकी बदहाली साथ-साथ चलती आ रही है और यहां की सरकार में राजनीतिक ईमानदारी नहीं आई तो भविष्य भी सुधरने वाला नहीं है। उल्लेखनीय है कि जनवरी 2022 में रेलवे भर्ती बोर्ड की परीक्षाओं में अनियमितताओं तथा उसी वर्ष जून में अग्निवीर योजना के हिंसक विरोध की खबरें सबसे पहले बिहार से आई थीं। यह बात दर्शाती है कि राज्य के युवाओं में राज्य के भीतर रोजगार के अवसरों की कमी को लेकर कितना अधिक गुस्सा है। बिहार सरकार ने मंगलवार को राज्य में किए गए जाति सर्वेक्षण को सार्वजनिक किया और उसके सामाजिक-आर्थिक ब्यौरों ने एक बार फिर यह दिखाया कि राज्य में रोजगार की स्थिति कितनी खराब है और वहां गरीबी कितनी ज्यादा है।वर्तमान में वहां महागठबंधन की सरकार है, जिसमें जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), कांग्रेस और वामदल भी शामिल हैं, वह सर्वे के नतीजे को सिर्फ राजनीतिक नजर से देख रही है और समस्या के समाधान के लिए आरक्षण की प्रतिशत बढ़ाने पर जोर दे रही है।
फिलवक्त विधानसभा ने सर्वसमिति से जो प्रस्ताव पेश किया है, उसके अनुसार राज्य में कुल 75 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है, जबकि सामान्य वर्ग के लिए महज 25 प्रति सीटें अनारक्षित रहेंगी। वर्तमान सरकार ने राज्य की हालत सुधारने के लिए निजी पूंजी जुटाने की राह सुझाने के बजाए निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा देती तो अच्छा होता। आंकड़ों ने बिहार सरकार को यकीन दिला दिया कि वह राज्य में जाति आधारित कोटा को बढ़ाकर 75 फीसदी कर दे। ऐसा करने से कुल आरक्षण 75 फीसदी हो जाएगा। कम आय वाले राज्य के दर्जे से बाहर निकलने के लिए जूझ रहे और वेतन वाले या नियमित वेतन वाले रोजगार के मामले में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के लिए यह कोटा कोई रामबाण साबित होने नहीं जा रहा है। सावधिक श्रम शक्ति सर्वे (पीएलएफएस) के मुताबिक 2022-23 में बिहार में केवल 8.6 फीसदी ऐसे रोजगार थे जो 21 फीसदी बढ़कर राज्यों में सबसे कमजोर आंकड़ा है। इन सभी राज्यों का औसत 22.7 फीसदी है। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक बिहार की 13 करोड़ की आबादी में से केवल 1.57 फीसदी यानी 20.4 लाख लोगों के पास सरकारी नौकरी, 1.22 फीसदी यानी 16 लाख लोागें के पास निजी नौकरी, 2.14 फीसदी यानी 28 लाख लोगों के पास असंगठित क्षेत्र में काम और 3.05 फीसदी यानी करीब 40 फीसदी लोगों के पास स्वरोजगार था। बाकी लोगों की बात करें तो सर्वे के मुताबिक 67.54 फीसदी या करीब 8.82 करोड़ लोग घरेलू महिलाएं या छात्र हैं।
7.7 फीसदी या एक करोड़ लोग खेती से जुड़े हैं और करीब 17 फीसदी या 2.18 करोड़ लोग श्रमिक हैं। सर्वे के अनुसार 63.74 फीसदी यानी करीब 29.7 लाख परिवार रोजाना 333 रुपए से कम यानी 10,000 रुपए मासिक से कम पर गुजारा करते हैं, वहीं 34.13 फीसदी या एक-तिहाई से अधिक लोग रोजाना 200 रुपए या उससे कम पर गुजर-बसर करते हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि सामान्य वर्ग या उच्च जाति के हिंदुओं को सरकारी नौकरियों और जमीन तथा वाहनों के मालिकाने में अन्य जातियों पर असाधारण बढ़त हासिल है, हालांकि यह आकार भी बहुत बड़़ा नहीं है। यहां भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजाति में गरीबी का स्तर 42 फीसदी के साथ काफी अधिक है वहीं 25 फीसदी सामान्य एवं 33 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अति पिछड़ा वर्ग के परिवार 6,000 रुपए या उससे कम प्रतिमाह पर गुजारा कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि बिहार का संकट केवल जातिगत भेदभाव से उपजा हुआ नहीं है और इसे केवल सकारात्मक भेद की मदद से खत्म नहीं किया जा सकता है। आवश्यकता यह है कि राज्य निवेश को बढ़ावा दे, छोटे और मझोले उद्योगों को समर्थन दे और बागवानी, मत्स्य पालन तथा खाद्य प्रसंस्करण में निवेश करे। श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की भी आवश्यकता है।