फिलवक्त प्रकृृति गुस्से में है, इसलिए उसकी मार लगातार जारी है। कभी पूर्वोत्तर में तो कभी उत्तराखंड में उसके गुस्से का असर देखा जा सकता है। बावजूद इसके हम सुधरने वाले नहीं हैं और बार-बार उसके कोपभाजन का शिकार हो रहे हैं।  परिणामत: कभी हमारी मौत बाढ़ या भूस्खलन से हो रही है तो कभी बादल फटने से असमय ही काल के गाल में समा रहे हैं। कभी-कभार हमारे खिलाफ ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जो कल्पना से भी परे होती हैं, इसकी वजह साफ है कि इन दिनों हम अपनी करनी से प्रकृृति की निर्बाध स्वतंत्रता को बाधित कर रहे हैं। अपने फायदे के लिए नदी की स्वतंत्र यानी बहती धारा को रोक रहे हैं ताकि इसका दोहन कर बिजली का उत्पादन किया जा सके। पेड़- पौधे से लेकर पहाड़ तक की कटाई कर प्रकृृति को ध्वंस कर रहे हैं तो इसकी मार किसी और पर क्यों पड़ेगी, हम दोषी हैं तो सजा भी हमें ही मिलेगी। इसी कड़ी में हिमालय के ऊपरी हिस्से में एक सुरंग के निर्माण के दौरान उसके ढह जाने से 41 श्रमिक फंस गए और फिलहाल उन्हें बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

सरकार की चार धाम राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना का यह हिस्सा उत्तरकाशी क्षेत्र में ब्रह्मखाल और यमुनोत्री के बीच स्थित है। यह मानने की पर्याप्त वजह है कि इस घटना में किसी तरह की जनहानि नहीं होगी और कामगार इस मुश्किल परिस्थिति से सकुशल निकल आएंगे लेकिन यह एक और चेतावनी है कि देश के बड़े पहाड़ी इलाकों में अधोसंरचना परियोजनाओं को राजनीतिक कारणों से बढ़ावा दिया जा रहा है तथा इस दौरान तकनीकी और पर्यावरण संबंधी आकलन को बिल्कुल ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। ऐसा आकलन अहम काम को टालने का जरिया नहीं है बल्कि इनकी मदद से यह सुनिश्चित किया जाता है कि इन कठिन क्षेत्रों में होने वाला निर्माण वहां काम कर रहे लोगों या बाद में उसका इस्तेमाल करने वाले लोगों के लिए किसी तरह जोखिम भरा साबित न हो। ये इलाके भूस्खलन, अचानक आने वाली बाढ़ और यहां तक कि भूकंप के जोखिम वाले होते हैं। यहां होने वाले अधोसंरचना निर्माण का पर्याप्त मजबूत होना आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में ये निर्माण कई तरह के खतरों की जद में रहते हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण न केवल मौसम में अतिरंजित बदलाव हुए हैं बल्कि बादल फटने की घटनाएं भी घटी हैं। इस संदर्भ में चार धाम राजमार्ग जैसी विशालकाय निर्माण परियोजनाओं को तब तक खतरनाक माना जाना चाहिए जब तक कि उन्हें जलवायु वैज्ञानिकों और पारिस्थितिकी विशेषज्ञों की निगरानी में ध्यानपूर्वक तैयार नहीं किया गया हो। प्रत्येक सप्ताह में ऐसी कुछ खबर आती है कि इस क्षेत्र में किसी न किसी बड़ी परियोजना के साथ कुछ न कुछ घटित होता है। अभी कुछ सप्ताह पहले ही असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर सुबनसिरि लोअर जलविद्युत परियोजना को एक भीषण भूस्खलन का सामना करना पड़ा जिसके चलते इस क्षेत्र में निर्माण कार्य खतरे में पड़ गए। भूस्खलन के कारण वह इकलौती सुरंग बंद हो गई जिसका इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा था कि नदी का पानी आसपास के उस इलाके में पहुंचे जहां बांध का निर्माण हो रहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि भूस्खलन के कारण आठ अलग-अलग नहरें भी प्रभावित हुईं जिन्हें रास्ता बदलने के लिए इस्तेमाल किया जाना था। अक्तूबर के आरंभ में तीस्ता नदी के ऊपरी इलाके में अचानक आई बाढ़ के कारण चुंगथांग बांध के कुछ हिस्से बह गए और तीस्ता वी पावर स्टेशन को बंद करना पड़ा। तीस्ता-3 और तीस्ता-4 को गाद और कीचड़ से नुकसान पहुंचा और तीस्ता-6 के निर्माण को काफी नुकसान पहुंचा। राष्ट्रीय  जल विद्युत निगम (एनएचपीसी) ने एक नियामकीय फाइलिंग में बताया कि उसे 233.56 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। इससे पहले गर्मियों में केंद्रीय बिजली प्राधिकरण ने अनुमान लगाया था कि जुलाई में आई बाढ़ के कारण जलविद्युत क्षेत्र को 164 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। अब वक्त आ गया है कि हम एक कदम पीछे लेकर उस प्रक्रिया का दोबारा आकलन करें जिसके माध्यम से ऐसी परियोजनाओं को मंजूर किया जाता है तभी हमारी समस्या का समाधान होगा और हम बेवजह प्रकृृति के प्रकोप से बच पाएंगे, जो हमारेबच्चों के लिए बेहतर भविष्य की संरचना करेगा।