सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के लिए अनियंत्रित महंगाई पर अंकुश लगाना आवश्यक है। महंगाई के कारण सिर्फ आम आदमी ही परेशान नहीं होता, बल्कि इसका देश की आॢथक परिचालन पर भी प्रभाव पड़ता है। दूसरी ओर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए लेन-देन का बरकरार रहना जरूरी है। जब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मुद्रा का आवागमन निर्वाध रूप से जारी नहीं रहेगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। आमतौर पर कहा जाता है कि संपदा का एक स्थान पर केंद्रीकृृत होना तथा असमानता में बढ़ोतरी होना भी आर्थिक विकास को प्रभावित कर सकते हैं। यहां तक कि देश के मजबूत आर्थिक वृद्धि के प्रदर्शन के दौर में भी यह जारी रह सकता है। जानकार बताते हैं कि महामारी के बाद की सुधार प्रक्रिया में असमानता बढ़ी है। आय के निचले स्तर पर मांग में कमजोर सुधार, मेहनताने में कमी और रोजगार के कुल हालात को देखते हुए लग रहा है कि आर्थिक सुधार असंतुलित है, इसको संतुलित करना समय की सबसे बड़ी मांग है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, भारतीय रिजर्व बैंक तथा अन्य स्रोतों से आने वाले आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण भारत अभी भी मुश्किल दौर से जूझ रहा है जबकि कॉर्पोरेट और शहरी भारत के एक हिस्से की स्थिति बेहतर है। उदाहरण के लिए सांख्यिकी कार्यालय का आंकड़ा दिखाता है कि जनवरी 2022 से अक्तूबर 2023 के बीच ग्रामीण खुदरा मुद्रास्फीति दर 22 में से 18 महीनों तक शहरों की तुलना में अधिक रही। निरंतर उच्च मुद्रास्फीति मोटे तौर पर खाद्य कीमतों, मानसून और कम उत्पादन से प्रभावित रही और यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बुरा असर डाल सकती है तथा समग्र मांग को प्रभावित कर सकती है। औसतन कमजोर मेहनताना और राज्यों के बीच में असमानता ग्रामीण भारत की चिंताओं में इजाफा कर रहा है। देश के कृृषि श्रमिकों की औसत दैनिक आय 2022-23 में 345.7 रुपए है। यह सालाना आधार पर सात फीसदी अधिक है। यह समग्र मुद्र्रास्फीति दर से थोड़ा अधिक है। मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में ग्रामीण इलाके में मेहनताना देश में सबसे कम गति से बढ़ा। ऐसा कृृषि और गैर कृृषि दोनों क्षेत्रों में हुआ।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था रोजगार के पर्याप्त अवसर तैयार करने में नाकाम रही है। दूसरी ओर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत रोजगार की मांग अक्तूबर के अंत तक पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 10 फीसदी बढ़ी। एक अनुमान के मुताबिक योजना के तहत सक्रिय परिवारों को केवल 50 दिनों का रोजगार मुहैया कराने में 1.5 लाख करोड़ रुपए की राशि लगेगी जबकि बजट आवंटन केवल 60,000 करोड़ रुपए का है। रोजगार की स्थिति को स्वरोजगार में इजाफे में भी महसूस किया जा सकता है। आय और रोजगार की स्थिति कंपनियों के नतीजों में भी नजर आ रही है। इस बीच दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियों के प्रदर्शन में गिरावट आई। वाहन तथा अन्य क्षेत्रों में महंगे ब्रांड अच्छा कारोबार कर रहे हैं। लक्जरी बाजार का प्रदर्शन भी आने वाले वर्षों में अच्छा रहने की उम्मीद है।
कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि महंगी उपभोक्ता वस्तुओं का कारोबार अच्छा नहीं होना चाहिए। वास्तव में भारत के आकार की बढ़ती अर्थव्यवस्था में तो यह अपेक्षित ही है, परंतु आय और संपत्ति का वितरण केद्रीकृत होता जा रहा है। उदाहरण के लिए महंगी कारों और महंगी अचल संपत्ति के साथ-साथ दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री भी बढ़नी चाहिए जो बड़े पैमाने पर बाजार की जरूरतों को पूरा करती हैं। संपत्ति और आय के केंद्रीकरण की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अगर व्यापक बाजार में मांग कमजोर बनी रही तो उच्च आर्थिक वृद्धि बरकरार रखना मुश्किल बना रहेगा। निश्चित तौर पर तात्कालिक आधार पर सुधार के कई उपाय किए जा सकते हैं। एकमात्र तरीका अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाना हो सकता है। उसे भी इस तरह इस्तेमाल करना होगा ताकि देश की बढ़ती श्रमशक्ति के लिए रोजगार तैयार किए जा सकें। बढ़ी हुई सब्सिडी और केंद्र और राज्य सरकार के स्तर पर नकदी हस्तांतरण जैसे जो कदम उठाए जा रहे हैं उनसे कोई खास मदद नहीं मिलने वाली है।