महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर यूं तो शायद ही कोई दिन जाता हो जब विश्व पटल पर कहीं न कहीं गंभीर चर्चा न होती हो, लेकिन नतीजे वैसे क्यूं नहीं दिखते? यह भी सच है कि आधी आबादी की पूरी आजादी को लेकर दुनिया भर में काफी कुछ लिखा, कहा, समझा और समझाया जा रहा है परंतु कथनी और करनी में तब भी कोई खास अंतर क्यों नहीं दिखता है? बेशक महिलाओं ने काफी तरक्की की है, हर क्षेत्र में वो आगे बढ़ गई हैं। अंतरिक्ष से लेकर पहाड़ और खेलों से लेकर प्रशासन व राजनीति में दबदबा भी बढ़ा है लेकिन क्या यह काफी है? उससे भी बड़ा सवाल यह कि अपने दमखम पर तमाम क्षेत्रों में आगे बढ़ी महिलाओं को छोड़ दें तो आबादी के लिहाज से उसी अनुपात में यह आम या पुरुषों के बराबर क्यों नहीं है? इसका जवाब शायद जल्द मिलेगा भी नहीं और पूछें तो किससे? क्या उसी महिला से जिसकी कोख मानव अस्तित्व यानी स्त्री-पुरुष की जननी है और जन्म देने के बाद ही दोनों की हैसियत समाज में अलग-अलग हो जाती है? ऐसे सवाल अमूमन पूरी दुनिया में मुंह बाएं खड़े हैं चाहे वह पाश्चात्य देश हों या दुनिया का तथाकथित अभिजात्य वर्ग या फिर गरीब मुल्क। हां दुनिया के पिछड़े और तरक्कीशुदा देशों में महिला समानता का सच अक्सर न केवल चिढ़ाता है बल्कि  तरक्की के तमाम वादों के बाद विकृतियों के आईने पर हकीकत को भी दिखाता है। इसके बावजूद महिलाएं तमाम तरह के सच व पूर्वाग्रहों के बीच भी अपनी हस्ती को बढ़ा रही हैं जो आधी आबादी की जिद या जिजीविषा (जीने की चाह) को दिखाता है। इसके पीछे बहुत बड़ा दर्शन है, बहुत बड़ा सच है जिसका कुछ शब्दों में अर्थ यह कि महिला परिवार, समाज व देश को बांधकर रखती है और यही जानबूझकर भी न समझ पाना बेहद दुखद है। किसे नहीं पता कि लिंगभेद का शिकार सबसे ज्यादा आज भी महिलाएं ही हैं। लड़कियों को इस दौर में भी पढ़ाई से दूर रखा जाता है। स्कूल भेजने की सोचना तो दूर की बात। इसके अलावा भारत में ही कुपोषण को लेकर महिलाओं का आंकड़ा न केवल डराता है बल्कि हैरान करता है। वैदिक काल में बहुत सी विदुषी स्ति्रयां हुई है जैसे अपाला, घोषा, विश्ववारा, सरस्वती, लोपामुद्रा आदि इन्होंने कई सूक्तों की रचना ऋग्वेद में की है। तब सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में बिना किसी प्रतिबंध के हिस्सा लेती थी। उस काल की नारी पुरुषों के साथ यज्ञ, सभा, समिति एवं गोष्ठी में सम्मिलित होती थी। ऋग्वैदिक काल में नारी हर तरह से पुरुषों के समकक्ष थी। इसी तरह मनु स्मृति में भी श्लोक 3/56 में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रिया।’ अर्थात जहां स्ति्रयों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां स्ति्रयों की पूजा नहीं होती, उनका सम्मान नहीं होता है वहां किए गए समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। जबकि श्लोक 3/57 में लिखा है शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।। यानी जिस कुल, पारिवार में स्ति्रयां दुर्व्यवहार के कारण दुखी रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है। महिला दिवस की की शुरुआत भले ही 113 वर्ष पूर्व 1908 में एक आंदोलन के दौरान हुई हो लेकिन इसकी जरूरत आज भी वैसी की वैसी है। तब अमरीका में न्यूयार्क की सड़कों पर कामकाजी महिलाओं का बड़ा आंदोलन हुआ था जिसमें करीब 15 हजार महिला शामिल हुईं और काम के समय को कम करने, उचित वेतन और मतदान के अधिकार की मांग की गई। इसे जर्मनी की राजनीतिज्ञ क्लारा जेटकिन ने सम्हाला और बढ़ाया और महिला दिवस बनाने का रूप दिया।  अंतर्राष्ट्रीय  महिला दिवस 8 मार्च को ही मनाए जाने के पीछे रोचक प्रसंग है। हालांकि क्लारा जेटकिन ने शुरुआत करते हए कोई तारीख तय नहीं की थी।  तब साल 1917 में युद्ध के दौरान रूस की महिलाओं ने ‘ब्रेड एंड पीस’  यानी खाना और शांति की मांग की थी जो इतना सशक्त रहा कि वहां के सम्राट निकोलस सत्ता छोड़ने को मजबूर हुए और तब बनी अंतरिम सरकार ने महिलाओं को मतदान का अधिकार दे दिया। उस समय वहां जूलियन कैलेंडर उपयोग किया जाता था जिसमें तारीख 23 फरवरी थी। जबकि ग्रेगेरियन कैलेंडर में यही तारीख 8 मार्च थी। बस तभी से 8 मार्च का दिन अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।  नार्वे, फिनलैंड, आइसलैंड, डेनमार्क, ताइवान, न्यूजीलैंड का उदाहरण सामने है जहां महिलाएं देशों की कमान संभाले हुए हैं, जबरदस्त काम कर आधी आबादी का पूरा सच सामने रख दिया। वहीं पड़ोस के पुरुष नेतृत्व वाले मुल्क जैसे आयरलैंड, स्वीडन, यूनाइटेड किंगडम जूझते ही रहे। अति प्रतिष्ठित फोर्ब्स मैगजीन तो द गार्डियन ने भी इन महिला नेताओं के नेतृत्व को सच्चा उदाहरण बताते हुए लिखा है कि जब मानव समाज के लिए जो खराब स्थिति बनी तो इन महिलाओं ने दुनिया को दिखा दिया कि कैसे बिगड़ते हालात सुधारे जा सकता है। बेशक जमाना बहुत आगे निकल गया हो लेकिन महिलाओं की हैसियत अभी भी घर संभालने और परिवार चलाने से ज्यादा नहीं दिखती। 21 वीं सदी में भी दकियानूसी कहें या ज्यादती हर कहीं महिलाओं को घरों की चहारदीवारी में ही कैद देखा जा सकता है। कहीं धर्म तो कहीं स्वाभाविमान से जोड़कर इसे बढ़ावा देने की नाकाम कोशिशों ने हमेशा महिला प्रतिभाओं का दमन किया है। इन्हीं सब पर लगाम और महिलाओं के सम्मान, जागरुकता, अधिकार के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस जैसे आयोजन पूरी ईमानदारी से समय, शहर और दकियानूसी की सीमाओं को लांघकर किया जाना जरूरी है ताकि धीरे से ही सही आधी आबादी की पूरी आजादी का सपना सच हो सके।

 ऋतुपर्ण दवे

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