एक बार फिर हिंदी के खिलाफ तमिलनाडु में आंदोलन चल रहा है, जिसका नेतृत्व खुद सीएम स्टालिन कर रहे हैं। यदि किसी आंदोलन का नेतृत्व खुद राज्य का मुखिया करे तो उसकी गंभीरता को भली भांति समझा जा सकता है। राजनीतिक के जानकार एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि आखिरकार तमिलनाडु के अचानक हिंदी विरोध का कारण क्या है। इस सवाल पर कुछ लोगों का कहना है कि डीएमके सरकार हिंदी का कम, राज्य में होने वाले सीमांकन का ज्यादा विरोध कर रही है। दूसरे शब्द में कहें तो डीएमके सीमांकन का विरोध करने के लिए हिंदी विरोध के बहाने माहौल बनाने में लगी हुई है। उनका मानना है कि हिंदी का विरोध महज बहाना है। वैसे तीन भाषा नीति को लेकर तमिलनाडु में फिर से हिंदी विरोध की राजनीति गरमा गई है। नई शिक्षा नीति के तीन भाषा फॉर्मूले के जरिए तमिलनाडु सरकार लगातार केंद्र सरकार और भाजपा पर हिंदी थोपने का आरोप लगा रही है। तमिलनाडु को केंद्र सरकार से सर्व शिक्षा अभियान के तहत फंड नहीं मिला है। वहां के मुख्यमंत्री एम.के स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि राज्य के 2,152 करोड़ रुपए जारी नहीं किए गए हैं। उन्होंने यह पैसा जारी करने की मांग की। दरअसल,फंड के लिए राज्यों को नई शिक्षा नीति के प्रावधान लागू करने हैं, जिनमें तीन भाषा नीति भी शामिल है। तमिलनाडु में शुरू से तीन भाषा नीति का विरोध होता रहा है। 1968 में जब यह फॉर्मूला लागू हुआ, तब भी हिंदी थोपने की बात कहते हुए तमिलनाडु ने इसे लागू नहीं किया। राज्य में अभी दो भाषा नीति ही लागू है। वहां स्टूडेंट्स को तमिल और इंग्लिश पढ़ाई जाती है। जब केंद्र सरकार की नई एजुकेशन पॉलिसी का ड्राफ्ट सामने आया था,तब भी हिंदी थोपने का आरोप लगाते हुए सबसे ज्यादा विरोध तमिलनाडु में हुआ। तब केंद्रीय शिक्षा मंत्री को सफाई भी देनी पड़ी थी और फिर ड्राफ्ट की कुछ लाइनों में बदलाव भी हुआ था। नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि एक मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, दूसरी कोई अन्य भारतीय भाषा और तीसरी अंग्रेजी या कोई अन्य विदेशी भाषा होनी चाहिए। तमिलनाडु में हिंदी विरोध वैसे भी वहां की राजनीति में अहम रहा है। 1960 के दशक में हुए आंदोलन के पीछे भी वजह राजनीतिक ही थी। तब हिंदी विरोध के रूप में वहां के क्षेत्रीय नेताओं को एक ऐसा मुद्दा मिला, जिसने तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीतिक दलों की नींव रखने का काम किया। 1965 में हुए इस आंदोलन ने द्रविड़ अस्मिता का सवाल उठाया और दो साल बाद ही डीएमके सत्ता में आ गई। तभी से वहां द्रविड़ अस्मिता और भाषा मुद्दा बनती रही हैं। यहां उल्लेखनीय है कि दिसंबर 1952 में लगभग 56 दिनों के आमरण अनशन के बाद मद्रास (अब आंध्र प्रदेश) के पोट्टि श्रीरामुलु अमरजीवी ने दम तोड़ दिया था। वह भाषा के आधार पर एक अलग राज्य बनाए जाने की मांग कर रहे थे। उनकी मौत की वजह से तत्कालीन भारत में व्यापक हिंसा हुई और सरकार को राज्य पुनर्गठन आयोग बनाना पड़ा और अक्टूबर 1953 में भाषा (तेलुगू) के आधार पर देश के पहले राज्य आंध्र प्रदेश का निर्माण किया गया। भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन की मांग या विवाद नया नहीं है। इसी तर्ज पर हिंदी को लेकर अब केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच विवाद पैदा हो गया है। तमिलनाडु सरकार ने हिंदी की वजह से राज्य में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को लागू करने से मना कर दिया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत सभी राज्यों में तीन भाषाएं पढ़ाए जाने की बात कही गई है, जिसके तहत पहली भाषा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, दूसरी भाषा गैर हिंदी राज्यों के लिए हिंदी या अंग्रेजी और हिंदी भाषी राज्यों के लिए अंग्रेजी या कोई दूसरी आधुनिक भारतीय भाषा और तीसरी भाषा के रूप में गैर हिंदी राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा और हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया है। आसान शब्दों में कहें तो इसके तहत हिंदी, अंग्रेजी और संबंधित राज्य की क्षेत्रीय भाषा पढ़ाए जाने पर जोर दिया गया, लेकिन किसी तरह की बाध्यता नहीं है। तमिलनाडु सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति के जरिए गैर हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपना चाहती है। तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि राज्य में 1968 से द्विभाषा नीति के तहत स्कूलों में तमिल और अंग्रेजी की शिक्षा पहले से ही दी जा रही है। इसीलिए तमिलनाडु समेत कई दक्षिण भारतीय राज्यों ने केंद्र सरकार पर शिक्षा के संस्कृतिकरण का आरोप लगाया है।
फिर हिंदी का विरोध
