तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन का कहना है कि परिसीमन के नाम पर भारत के दक्षिणी राज्यों पर एक तलवार लटक रही है। हमारी लोकसभा सीटों में कटौती होने जा रही है और इससे तमिलनाडु की 8 लोकसभा सीटें कम हो जाएंगी। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और केंद्र की एनडीए सरकार के धुर राजनीतिक विरोधी एमके स्टालिन ने 25 फरवरी को ये बयान देकर भारत में उत्तर बनाम दक्षिण की नई बहस छेड़ दी। एमके स्टालिन ने परिसीमन से पैदा होने वाली संभावित चुनौतियों पर 5 मार्च को तमिलनाडु के राजनीतिक दलों की एक मीटिंग बुलाई थी ताकि आगे बढ़ने से पहले इस पर गौर किया जा सके। स्टालिन का ये बयान तब आया है जब राज्य में अगले ही वर्ष विधानसभा के चुनाव होने हैं। केंद्र पर निशाना साधते हुए एमके स्टालिन ने जनता को ये बताना चाहा कि राज्य ने जनसंख्या नियंत्रण में कामयाबी पाई है लेकिन इसका ये नतीजा हो सकता है कि अगले परिसीमन के बाद तमिलनाडु की लोकसभा सीटें कम हो जाएंगी। उन्होंने कहा कि हम 8 सीटें खो देंगे और परिणामस्वरूप, हमारे पास केवल 31 सांसद होंगे, जबकि वर्तमान में हमारे 39 सांसद है। स्टालिन का ये बयान इतना अहम था कि गृहमंत्री अमित शाह ने तुरंत प्रतिक्रिया दी और कहा कि दक्षिणी राज्यों का एक सीट भी नहीं कम होगा। अमित शाह ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में स्पष्ट किया है कि परिसीमन के बाद भी दक्षिण के किसी भी राज्य की सीटें कम नहीं होंगी। आखिर परिसीमन का मुद्दा है क्या? भारत के दक्षिण के राज्य इस मसले को क्यों उठा रहे हैं? सीएम स्टालिन क्यों कह रहे हैं कि हमें एक मिशन में सफल रहने का यही प्रतिफल दिया जा रहा है। बहुत आसान शब्दों में कहें तो परिसीमन भारत में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने की प्रक्रिया है ताकि जनसंख्या के आधार पर हर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व समान और निष्पक्ष हो सके। इसका उद्देश्य सभी नागरिकों और क्षेत्रों का संसद और विधानसभा समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। परिसीमन जब भी होता है जनगणना के नए आंकड़ों के आधार पर होता है। देश के दक्षिणी राज्य परिसीमन प्रक्रिया को लेकर इसलिए आशंकित हैं क्योंकि उन्हें डर है कि 2026 में प्रस्तावित लोकसभा सीटों का परिसीमन अगर जनसंख्या के आधार पर हुआ तो उनके क्षेत्र का संसदीय प्रतिनिधित्व कम हो सकता है। इससे संसद में उनकी ताकत कम होगी और नतीजतन देश की राजनीति में भी उनका प्रभाव भी कम होगा। अगर परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होता है, तो स्वाभाविक रूप से ज्यादा आबादी वाले राज्यों को अधिक सीटें मिलेंगी, जिसका मतलब है कि उत्तर भारत की सीटें बढ़ सकती हैं, जबकि दक्षिण भारत की सीटें या तो स्थिर रहेंगी या कम हो सकती हैं. अभी दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु (39), केरल (20), कर्नाटक (28), आंध्र प्रदेश (25), तेलंगाना (17) से कुल 129 सांसद लोकसभा में हैं, जबकि सिर्फ उत्तर प्रदेश (80), बिहार (40) और झारखंड (14) से ही 134 सांसद लोकसभा में हैं। जनसंख्या के मौजूदा रुझानों को देखते हुए यह अंतर और बढ़ सकता है। गौरतलब है कि परिसीमन की प्रक्रिया आखिरी बार 1976 में हुई थी। 1976 में भारत की जनसंख्या लगभग 63 करोड़ थी अब भारत की आबादी लगभग 145करोड़ हो चुकी है यानी कि 50 सालों में हमारी आबादी दोगुने से भी ज्यादा बढ़ गई है,लेकिन देश में आबादी एक समान अनुपात में नहीं बढ़ी है। दक्षिणी राज्यों जैसे तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, और तेलंगाना ने परिवार नियोजन और स्वास्थ्य सुधारों के जरिए अपनी जनसंख्या वृद्धि दर को काफी हद तक नियंत्रित किया है। दूसरी ओर हिंदी पट्टी के राज्य जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। दक्षिण के राज्यों की यही वाजिब शिकायत केंद्र से है। दक्षिणी राज्य मानते हैं कि जनसंख्या नियंत्रण में उनकी सफलता की सजा उन्हें कम सीटों के रूप में मिलेगी। इससे संसद में उनकी आवाज और प्रभाव कमजोर हो सकता है। दक्षिण भारत के राज्यों को लगता है कि ज्यादा सीटों का मतलब देश की राजनीति में हिंदी भाषी क्षेत्रों का वर्चस्व बढ़ेगा, जो पहले से ही संसद में ज्यादा सीटों के जरिए प्रभावी हैं। इससे क्षेत्रीय असमानता और गहरी हो सकती है। दक्षिणी राज्य अक्सर बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और औद्योगिक विकास के लिए जाने जाते हैं और वे इसे अपनी ताकत मानते है॥ लेकिन परिसीमन के बाद यह ताकत कथित तौर पर कमजोरी में बदल सकती है।
दक्षिण की चिंता
