आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य को प्रारंभिक स्वरूप देने में जिन कुछ रचनाकारों का नाम अगली कतार में रखा जाता है, बालकृष्ण भट्ट उनमें एक हैं। वे एक सफल नाटककार, पत्रकार, उपन्यासकार और निबंधकार थे। वे पहले ऐसे निबंधकार थे, जिन्होंने आत्मपरक शैली का प्रयोग किया। उन्हें हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। लगभग बत्तीस वर्षों तक उन्होंने 'हिंदी प्रदीप का संपादन किया था। वे 'भारतेंदु युग से लेकर 'द्विवेदी युग तक के लेखकों के मार्ग-दर्शक और प्रेरणा स्रोत रहे।
बालकृष्ण भट्ट का जन्म प्रयागराज में हुआ था। इनके पिता पंडित वेणी प्रसाद की शिक्षा में विशेष रुचि थी, इसलिए बालकृष्ण भट्ट की शिक्षा पर उन्होंने विशेष ध्यान दिया। शुरू में उन्हें घर पर ही संस्कृत की शिक्षा दी गई। फिर उन्होंने स्थानीय मिशन के स्कूल में अंग्रेजी पढ़ना प्रारंभ किया और दसवीं कक्षा तक अध्ययन किया। मिशन स्कूल छोड़ने के बाद वे फिर संस्कृत, व्याकरण और साहित्य का अध्ययन करने लगे।
कुछ समय के लिए बालकृष्ण भट्ट जमुना मिशन स्कूल में संस्कृत के अध्यापक भी रहे, पर अपने धार्मिक विचारों के कारण उन्हें वह पद छोड़ना पड़ा। विवाह होने पर जब बेकारी खलने लगी, तब वे व्यापार करने की इच्छा से कोलकाता भी गए, पर वहां से जल्दी ही लौट आए और संस्कृत साहित्य के अध्ययन तथा हिंदी साहित्य की सेवा में जुट गए। भाषा की दृष्टि से अपने समय के लेखकों में भट्ट जी का स्थान बहुत ऊंचा है। उन्होंने अपनी रचनाओं में यथाशक्ति शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया। भावों के अनुकूल शब्दों का चुनाव करने में भट्ट जी बड़े कुशल थे। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया है। भट्ट जी की भाषा में जहां-तहां पूर्वीपन की झलक मिलती है। उन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ-साथ तत्कालीन उर्दू, अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग किया है। वे हिंदी की परिधि का विस्तार करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने भाषा को विषय और प्रसंग के अनुसार प्रचलित हिंदीतर शब्दों से भी समन्वित किया है।
भट्ट जी ने 'नूतन ब्रह्मचारी नामक एक उपन्यास भी लिखा। आलोचना के क्षेत्र में भी भट्ट जी का महत्वपूर्ण योगदान है। भारतेंदु ने 'नाटक नामक निबंध द्वारा सैद्धांतिक आलोचना की शुरुआत की थी तो भट्ट जी ने 'हिंदी प्रदीप में लाला श्रीनिवासदास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर की 'सच्ची समालोचना नाम से व्यावहारिक आलोचना की जिसे हिंदी साहित्य की पहली व्यावहारिक आलोचना माना जाता है।
भट्ट जी ने कविताओं के स्थान पर गद्यात्मक लेखन को प्रधानता दी है, किंतु कहीं-कहीं इनके गद्यों में भी पद्यात्मकता आ गई है, जैसे- 'आज हम इस जून एक ऊन दो के ऊपर सून वाली संख्या में प्रवेश कर रहे हैं। उनका भाषा संबंधी दृष्टिकोण भी गौर करने के लायक है। वे भाषाई शुद्धता के समर्थक नहीं थे। उनका मानना था कि भाषा का विकास विभिन्न भाषाओं के शब्दों के आदान-प्रदान से ही होता है।
उनका प्रसिद्ध कथन है कि 'बहुत से लोगों का मत है कि हम लिखने-पढ़ने की भाषा से यावनिक शब्दों को बीन-बीनकर अलग करते रहें। कलकत्ता और बंबई के कुछ पत्र ऐसा करने का कुछ यत्न भी कर रहे हैं, किंतु ऐसा करने से हमारी हिंदी बढ़ेगी नहीं, वरन दिन-दिन संकुचित होती जाएगी। भाषा के विस्तार का सदा यह क्रम रहा है कि किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएं और उसे अपना करते रहें। कुल मिलाकर, भट्ट जी ने आधुनिक काल के हिंदी साहित्य का बहुत अधिक संवर्द्धन किया है।
भट्ट जी ने जहां आंख, कान, नाक, बातचीत जैसे साधारण विषयों पर लेख लिखे हैं, वहां आत्मनिर्भरता, चारु चरित्र जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है। साहित्यिक और सामाजिक विषय भी भट्ट जी से अछूते नहीं रहे। समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने सामाजिक निबंधों की रचना की। भट्ट जी के निबंधों में सुरुचि-संपन्नता, कल्पना, बहुवर्णनशीलता के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं।
भारतेंदु काल के निबंधकारों में भट्ट जी का सर्वोच्च स्थान है। उन्होंने पत्र, नाटक, काव्य, निबंध, उपन्यास, अनुवाद आदि के माध्यम से हिंदी की सेवा की और उसे धनी बनाया। निबंधकार के रूप में उनकी तुलना अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबंधकार चार्ल्स लैंब से की जा सकती है। गद्य काव्य की रचना भी सर्वप्रथम भट्ट जी ने ही प्रारंभ की। इनसे पहले हिंदी में गद्य काव्य का नितांत अभाव था। भट्ट जी की प्रमुख कृतियां हैं- साहित्य सुमन, आत्मनिर्भरता, चंद्रोदय, संसार महानाट्यशाला, प्रेम के बाग का सैलानी, माता का स्नेह, आंसू, कालचक्र का चक्कर, शब्द की आकर्षण शक्ति, प्रतिभा, आकाश पिप्पल, नूतन ब्रह्मचारी, सौ अजान और एक सुजान, रहस्यकथा, दमयंती स्वयंवर, बाल-विवाह, चंद्रसेन, रेल का विकट खेल आदि।