क्रिसमस का पर्व शांति, प्रेम और करुणा का संदेश लेकर आता है, लेकिन इस वर्ष यह दिन कटुता, हिंसा और असहिष्णुता की घटनाओं की छाया में बीत गया। इस दिन असम के नलबाड़ी में जो भी हुआ, वह निहायत ङ्क्षचता का विषय है। इस मौके पर देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसी खबरें सामने आईं, जिनमें अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय के पवित्र गिरजाघरों पर हमले किए गए, क्रिसमस ट्री को गिराया गया और सार्वजनिक स्थानों पर सजे सांता क्लॉज के प्रतीकों को अपमानित किया गया। ये घटनाएं केवल किसी एक समुदाय की आस्था पर प्रहार नहीं हैं, बल्कि भारत की उस साझा सांस्कृृतिक विरासत पर चोट है, जिसकी पहचान धार्मिक सहिष्णुता और समभाव से बनी है। भारत स्वयं को सनातन मूल्यों का देश कहता है। वसुधैव कुटुम्बकम’- संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की भावना - हमारे सामाजिक और दार्शनिक चिंतन का आधार रही है। इसी दर्शन ने भारत को विविध धर्मों, भाषाओं और परंपराओं का सुरक्षित आश्रय बनाया। ऐसे में किसी भी धर्म के पर्व, प्रतीक या आराध्य पर हमला नैतिक रूप से निंदनीय है। संविधान प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता देता है और राज्य का दायित्व है कि वह इस स्वतंत्रता की रक्षा करे। ईसाई समुदाय विश्व भर में लगभग 2.4 अरब लोगों की आस्था का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में भी लगभग 3.5 करोड़ ईसाई नागरिक रहते हैं और ईसाई धर्म यहां का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है। छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और ओडिशा जैसे राज्यों में हाल के वर्षों में ईसाइयों के खिलाफ हिंसक घटनाओं की खबरें चिंताजनक हैं। ये सवाल स्वाभाविक हैं कि ये हमले किसके द्वारा, किन मंसूबों से और किस राजनीतिक या सामाजिक संरक्षण में किए जा रहे हैं। विरोधाभास यह है कि एक ओर देश के प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से चर्च जाकर ईसाई समुदाय के साथ प्रार्थना में शामिल होते हैं, वहीं दूसरी ओर जमीनी स्तर पर कई स्थानों पर हमलों के बावजूद प्राथमिकी तक दर्ज नहीं होती। यह स्थिति कानून के राज और प्रशासनिक निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाती है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले एक दशक में ईसाइयों के खिलाफ हिंसा और घृणास्पद घटनाओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। साथ ही, नफरती भाषणों के मामलों में भी तेज उछाल देखा गया है, जिनका बड़ा हिस्सा धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध है। यह स्थिति केवल ईसाई समुदाय की समस्या नहीं है। यह भारत की सामाजिक एकता, लोकतांत्रिक मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय छवि से जुड़ा प्रश्न है। जब नफरत को राजनीतिक लाभ के लिए मौन स्वीकृृति मिलती है या उस पर कठोर कार्रवाई नहीं होती, तब असामाजिक तत्व और अधिक साहसी हो जाते हैं। ऐसे तत्व न तो किसी धर्म का सम्मान करते हैं और न ही राष्ट्र की प्रतिष्ठा का। धर्मांतरण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी संविधान और कानून के दायरे में रहकर चर्चा और समाधान होना चाहिए। यदि कहीं कानून का उल्लंघन होता है, तो उसके लिए न्यायिक और प्रशासनिक रास्ते मौजूद हैं। सामूहिक हिंसा, डराने-धमकाने और धार्मिक प्रतीकों को निशाना बनाना किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। भारत की खूबसूरती उसकी विविधता में है। मिजोरम, मेघालय और नगालैंड जैसे राज्यों में ईसाई बहुल समाज भारत की सांस्कृृतिक बहुरंगता को और समृद्ध करता है, ठीक वैसे ही जैसे केरल, गोवा या देश के अन्य हिस्सो में। इस विविधता को बनाए रखना केवल सरकार की नहीं, बल्कि हर नागरिक की जिम्मेदारी है। आज आवश्यकता है कि राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और धार्मिक नेतृत्व स्पष्ट और एकजुट होकर सांप्रदायिक हिंसा की निंदा करें। कानून को बिना भेदभाव लागू किया जाए और नफरत फैलाने वालों को सख्त संदेश दिया जाए कि भारत में असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं है। तभी ‘नया हिंदुस्तान’ वास्तव में शांति, समावेश और समानता का प्रतीक बन सकेगा- जहां हर धर्म, हर आस्था और हर नागरिक सुरक्षित और सम्मानित महसूस करे। धाॢमक असहिष्णुता को कतई पसंद नहीं किया जा सकता।