देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली आज जिस घातक पर्यावरणीय संकट से जूझ रही है, वह केवल प्रदूषण का संकट नहीं, बल्कि सामाजिक अन्याय का भी गंभीर उदाहरण बन चुका है। विडंबना है कि इस संकट से निपटने के लिए जो नीतियां और प्रतिबंध लागू किए जा रहे हैं, उनका सबसे भारी बोझ समाज के सबसे कमजोर तबके (गरीबों और मजदूरों) पर पड़ रहा है। इस सच्चाई को देश की सर्वोच्च अदालत ने भी स्वीकार किया है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कि अमीरों की जीवनशैली से उपजी समस्याओं का खामियाजा गरीबों को भुगतना पड़ता है, केवल कानूनी टिप्पणी नहीं, बल्कि हमारे शहरी विकास मॉडल पर एक गहरा सवाल है। दिल्ली-एनसीआर में लागू ग्रैप-4 जैसे कड़े प्रदूषण नियंत्रण उपायों के तहत निर्माण कार्यों पर रोक लगाई जाती है, ईंट-भट्टे और कई औद्योगिक गतिविधियां बंद कर दी जाती हैं। इसका सीधा असर दिहाड़ी मजदूरों, निर्माण श्रमिकों और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोगों पर पड़ता है, जिनके पास न बचत होती है, न सामाजिक सुरक्षा। एक तरफ वे प्रदूषण के शिकार भी होते हैं और दूसरी तरफ रोजगार छिनने की दोहरी मार झेलते हैं। यह स्थिति एक कटु सत्य को उजागर करती है- प्रदूषण पैदा करने वाले और उसका दंड भुगतने वाले एक नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि महानगरों में प्रदूषण का बड़ा हिस्सा संपन्न वर्ग की जीवनशैली से जुड़ा है। एक-एक व्यक्ति के लिए निजी कारें, भारी ईंधन खपत, वातानुकूलन पर अत्यधिक निर्भरता, बड़े-बड़े घर, स्विमिंग पूल, लॉन और अनियंत्रित उपभोग- ये सब पर्यावरण पर भारी दबाव डालते हैं। इसके बावजूद जब संकट गहराता है, तो नीतियां कारखानों और निर्माण स्थलों को बंद करने तक सीमित रह जाती हैं, न कि उस उपभोग संस्कृृति पर लगाम लगाने तक, जो असल समस्या की जड़ है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि सरकारें अक्सर प्रतीकात्मक उपायों से आगे नहीं बढ़ पातीं। ऑड-ईवन जैसी योजनाएं अस्थायी राहत तो देती हैं, लेकिन स्थायी समाधान नहीं बन पातीं। सार्वजनिक परिवहन को सस्ता, सुलभ और भरोसेमंद बनाने में वह प्राथमिकता नहीं दिखाई गई, जिसकी आवश्यकता थी। यदि बसें, मेट्रो, साइकिल ट्रैक और पैदल यात्री मार्ग मजबूत होते, तो निजी वाहनों पर निर्भरता स्वत: कम होती, लेकिन नीति-निर्माण में सुविधा और तात्कालिकता ने दीर्घकालिक सामाजिक हितों को पीछे छोड़ दिया। पर्यावरणीय असमानता केवल हवा तक सीमित नहीं है। पानी की उपलब्धता इसका दूसरा बड़ा उदाहरण है। जहां गरीब बस्तियां बूंद-बूंद पानी के लिए जूझती हैं, वहीं पॉश कॉलोनियों में लॉन सींचे जाते हैं, कारें धुलती हैं और स्विमिंग पूल भरे रहते हैं। कुदरत ने संसाधन सभी के लिए दिए हैं, लेकिन उनका असमान वितरण और अमीरी का वर्चस्व गरीब के हिस्से में अभाव ही छोड़ता है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि संपन्न लोगों को अपनी जीवनशैली में बदलाव लाना होगा, बेहद महत्वपूर्ण है। पर्यावरण संरक्षण केवल कानूनों और प्रतिबंधों से संभव नहीं, इसके लिए सामाजिक चेतना और नैतिक जिम्मेदारी भी जरूरी है। यदि सचमुच स्वच्छ हवा और सुरक्षित भविष्य चाहिए तो कुछ सुख-सुविधाओं का त्याग अनिवार्य है- खासकर उनके द्वारा, जिनकी जीवनशैली संकट को जन्म दे रही है। अमीर होना कोई अपराध नहीं है, लेकिन ऐसी अमीरी जो गरीब की कीमत पर टिके, वह अस्वीकार्य है। पर्यावरण संकट ने हमें यह समझने का अवसर दिया है कि विकास का अर्थ केवल सुविधाओं की वृद्धि नहीं, बल्कि न्यायपूर्ण और संतुलित जीवन व्यवस्था है। यदि इस सच्चाई को नहीं अपनाया गया तो प्रदूषण केवल हवा में नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक ढांचे में भी घुटन पैदा करता रहेगा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पर्यावरण का संरक्षण सबसे जरूरी है। यदि हमने अभी से इस समस्या के स्थायी समाधान के लिए कार्य नहीं किया तो आने पीढ़ी हमें कतई माफ नहीं करेगी।
अमीरी का प्रदूषण