गुलाम नबी आजाद ने अंततः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी)को अलविदा कह दिया। खबर है कि आजाद नई पार्टी बनाएंगे और जम्मू और कश्मीर में एक नई पार्टी के माध्यम से अपनी गैर कांग्रेसी राजनीति की शुरुआत करेंगे,परंतु इस मामले में वे कितने कामयाब होंगे, यह तो भविष्य बताएगा,परंतु यह पूरी तरह से सच है कि आने वाला वक्त तय कर देगा कि जम्मू व कश्मीर में उनकी लोकप्रियता कितनी बरकरार है। वर्तमान परिस्थिति में 51 वर्ष की सेवा के बाद उनका कांग्रेस से जुदा होना कतई चौंकाता नहीं है। बीते शुक्रवार को सोनिया गांधी को लिखे एक लंबे पत्र में उन्होंने पार्टी के सभी पदों और प्राथमिक सदस्यता तक से इस्तीफा दे दिया। बहरहाल उनके फैसले से प्रभावित जम्मू-कश्मीर के पांच पूर्व विधायकों ने भी कांग्रेस से किनारा कर लिया। ऐसे में इस केंद्र शासित प्रदेश में कांग्रेस और कमजोर पड़ गई है। कहा जा रहा है कि गुलाम नबी आजाद को अपनी इच्छा के खिलाफ काम करना पड़ रहा था और उनके पास पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा था। यह फैसला उनके लिए आसान नहीं था,फिर भी उन्होंने ऐसा किया। कांग्रेस की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले राजनीतिक पंडितों का मानना है कि कांग्रेस निर्णायक दौर से गुजर रही है। ऐसे में यह सहज सच्चाई नहीं है कि कोई बड़ा नेता पार्टी छोड़ जाए। कांग्रेस की महत्वाकांक्षी पदयात्रा निकलने वाली है। महत्वपूर्ण चुनाव करीब आ रहे हैं, कई महत्वपूर्ण राज्यों में पार्टी को चुनाव के लिए खड़ा करने का मौका फिसलने लगा है, तब गुलाम नबी आजाद का जाना कोई अच्छा संदेश नहीं है। इससे कांग्रेस के मनोबल को कतई मजबूती नहीं मिलने वाली है। ऐसे नेता वर्षों मेहनत-अनुभव से तैयार होते हैं, पार्टी के लिए पूंजी होते हैं, लेकिन पार्टी ने अपनी इस पूंजी को बचाने की बहुत कोशिश नहीं की है। आशंका है कि अभी अनेक नेता कांग्रेस छोड़कर जाएंगे, पार्टी को सचेत भाव से चल रहे बिखराव को रोकना चाहिए। कांग्रेस को साल 2024 में बड़ी निर्णायक चुनावी लड़ाई का सामना करना है। पार्टी अभी अगर अपना घर दुरुस्त नहीं करेगी, अगर नई संतुलित राजनीतिक टीमें नहीं बनाएगी, तो बेशक, मुश्किलें उसका इंतजार कर रही हैं। पार्टी आजाद को कश्मीर में आगे रखकर तैयारी कर रही थी, लेकिन शायद वह उन्हें विश्वास में लेकर नहीं चल सकी। आजाद का आरोप है कि पार्टी को मनमाने ढंग से चलाया जा रहा है, सलाह-मशविरे की परिपाटी खत्म हो रही है। लेकिन आजाद के पार्टी छोड़ जाने का एक दूसरा पहलू भी है। क्या राजनीति में कोई रिटायर होना नहीं चाहता? क्या हर वरिष्ठ या बुजुर्ग नेता को अपनी पार्टी छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए? यह सवाल लोग पूछ रहे हैं कि आजाद को कांग्रेस ने आखिर क्या नहीं दिया था? वह तो जमीनी आधार वाले मजबूत नेता भी नहीं थे, तब भी वह केंद्र में मंत्री, राज्य में मुख्यमंत्री, राज्यसभा में पार्टी के संसदीय दल के नेता भी रहे, फिर भी वह पार्टी के प्रति असंतोष जता गए? सिर्फ गलतियां गिनाने की राजनीति वास्तव में दुखद है। क्या राजनीति में किसी नेता को अपने योगदान और अपनी उपलब्धियों को समग्रता में नहीं देखना चाहिए? खैर, यह बात हर पार्टी और हरेक नेता पर लागू होती है। दूसरी ओर इस बात को कतई भुलाया नहीं जा सकता कि किसी एक पार्टी के प्रति सोलह आना निष्ठा को लोग ज्यादा पसंद करते हैं, लेकिन क्या यह बात हमारे नेताओं की समझ में स्थापित है? वैसे अब चुनाव करीब आने लगे हैं, तो आया राम-गया राम के हालात अनेक बार बनेंगे। बहुत से नेता जिधर सत्ता की उम्मीद देखेंगे, उधर बढ़ चलेंगे। अब देखना है कि गुलाम नबी आजाद कांग्रेस से निकल किधर ठौर पाते हैं। नई पीढ़ी के राजनेता केवल कांग्रेस में ही नहीं हैं, हरेक पार्टी में हैं, हर जगह अनुभवी नेताओं को ज्यादा समझदारी के साथ खुद को स्थापित रखना होगा। कुल मिलाकर आजाद का पार्टी से जाना ठीक नहीं था,परंतु जब वे पार्टी से चले गए हैं तो उनकी ज्यादा खिंचाई भी ठीक नहीं है, ऐसा करते हुए आज ज्यादातर कांग्रेसी नजर आते हैं।