पिछले सात-आठ दशकों में देश की राजनीति में बड़ा बदलाव आया है। यदि आजादी से लेकर अब तक की राजनीतिक गतिविधियों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलेगा कि फिलहाल हमारे राजनेता राजनीतिक आदर्शवाद से बहुत दूर जा छिटके हैं, उनका पॉलिटिकल आइडियोलॉजी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ये लोग जोड़-तोड़ की राजनीति में विश्वास रखते हैं और इनका उद्देश्य सिर्फ सत्ता तक पहुंचना है। इन लोगों या पार्टियों के बीच जो कभी राजनीतिक रूप से अछूत थे, वे फिलहाल साथ-साथ हैं। जब से देश में गठबंधन की राजनीति हाबी हुई है तब से दक्षिण और वाम की दूरियां सिमट गई है। समाजवाद और वैज्ञानिक समाजवाद की परिभाषाएं भी बदल गई हैं। तात्कालिक फायदे ने जारी कायदे बिगाड़ दिए हैं। पिछले महीने नीतीश कुमार ने एक बार फिर जब एक सहयोगी दल के तौर पर कांग्रेस के साथ गठबंधन करके आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उनकी घोषित लोहियावादी विचारधारा जो मूलतः कांग्रेस-विरोध पर केंद्रित थी, एक बार फिर तार-तार हो गई। कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को आज के समय में भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा से जोड़कर देखा जाता हो, लेकिन कभी इसी तरह का आह्वान उस विविधापूर्ण समूह ने भी किया था, जिसके एक सदस्य नीतीश कुमार भी रहे हैं और जिसने 1960 और 70 के दशक में पहली बार इस पुरानी पार्टी को चुनौती दी थी, लेकिन समूह से जुड़े रहे ज्यादातर नेताओं ने अब खुद को कांग्रेस पार्टी के इर्द-गिर्द केंद्रित एक राजनीतिक विचारधारा में ही समेट लिया है। अपने वैचारिक गुरु राम मनोहर लोहिया के विपरीत इन नेताओं ने अपनी चुनावी राजनीति में कहीं अधिक सफलता की ऊंचाइयों को छुआ। हालांकि लोहियावादी राजनीतिक दलों के हिस्सा रहे इन प्रमुख चेहरों में से केवल एक नीतीश कुमार ही मौजूदा समय में एक राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाल रहे हैं। यद्यपि वह ऐसे अकेले लोहियावादी या उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं, जो अमूमन परिवार के सदस्य होते नहीं हैं जो वैचारिक अंतर्विरोधों के साथ अपने अनुकूल गठबंधन का हिस्सा बनते रहे हैं। कभी तेज-तर्रार नेता रहे शरद यादव अब कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की सफलता की कामना कर रहे हैं और रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान 2020 में दूसरी राह अपनाने के बाद अब अपनी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की भाजपा-नीत एनडीए में वापसी की शर्तों पर बातचीत कर रहे हैं। एक तरफ सत्यपाल मलिक हैं जिन्हें एनडीए ने राज्यपाल बनाया है, लेकिन वे कई बार अपनी ही पार्टी भाजपा की निर्धारित राजनीतिक लाइन मानने से इनकार कर देते हैं। दूसरी तरफ कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हैं, जिन्होंने जनता दल के कई गुटों का हिस्सा रहने के बाद अपने राजनीतिक जीवन का शिखर आखिरकार एक कांग्रेस नेता के तौर पर छुआ। हालांकि एक ऐसा बिंदु है जहां लालू प्रसाद यादव से लेकर मुलायम सिंह यादव और शरद यादव तक तमाम लोहियावादी नेता एक नाव पर सवार नजर आते हैं। ये सभी महिला आरक्षण विधेयक के एकदम मुखर विरोधी रहे हैं। लोहिया की एक विचारधारा थी और उससे प्रेरित कई राजनीतिक दावेदार भी थे, जिन्हें हम वर्तमान में लोहियावादियों के तौर पर वर्गीकृत करते हैं। हालांकि वे अब अलग-अलग होकर एकदम बिखर चुके हैं। एक खेमा है जो ओबीसी और सामाजिक न्याय की राजनीति करता है, दूसरा खेमा कांग्रेस की ओर कदम बढ़ा चुका है और एक तीसरा खेमा है जिसने भाजपा का दामन थाम लिया है। फिर आते हैं लोहियावादी झुकाव वाले कुछ शिक्षाविदों पर, जो पहले आप में शामिल हुए और फिर बाहर चले गए। कुल मिलाकर बात यह है कि राजनीति अब विचारधारा की नहीं रही, बल्कि इसने व्यावहारिकता का लबादा ओढ़ लिया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वर्तमान समय की राजनीति आदर्शवाद की नहीं है, बल्कि अवसरवाद की है।
राजनीतिक अवसरवाद
