नेपाल में संसद और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए रविवार को कड़ी सुरक्षा के बीच मतदान संपन्न हो गया। देश में 22 हजार से अधिक मतदान केंद्रों पर मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इस चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (सीपीएन-यूएमएल), नेपाली कांग्रेस तथा सीपीएन (एससी) मुख्य रूप से प्रतिद्वंद्विता कर रही है। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा के नेतृत्व वाली सीपीएन-यूएमएल का राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के साथ चुनावी समझौता है, जबकि नेपाली कांग्रेस का सीपीएन (एससी) के साथ गठबंधन है। नेपाल में नए संविधान लागू होने के बाद यह दूसरा चुनाव हो रहा है। 8 दिसंबर को चुनावी नतीजे सामने आ जाएंगे। नेपाल में संघीय संसद की 275 तथा 7 प्रांतीय विधानसभाओं की 550 सीट के लिए चुनाव हो रहा है। नेपाली संविधान के अनुसार 60 प्रतिशत सीटों पर सीधे चुनाव हो रहा है, जबकि 40 प्रतिशत सीटों पर अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के तहत चुनाव होगा। नेपाल की जनता चाहती है कि वहां राजनीतिक स्थिरता कायम हो। वर्ष 2006 में नेपाल में धर्म निरपेक्ष शासन लागू होने के बाद हिंदू राष्ट्र की जो अलग पहचान थी वह खत्म हो गई है। अब नेपाल की जनता चाहती है कि फिर से नेपाल को हिंदू राष्ट्र के रूप में जाना चाए। यही कारण है कि चुनाव में केपी शर्मा ओली जैसे वामपंथी नेता पशुपतिनाथ मंदिर में जाकर पूजा कर हिंदू कार्ड खेलने से परहेज नहीं किए। दूसरी तरफ नेपाली कांग्रेस तथा दूसरे धड़े के वामपंथी नेता पुष्प कमल दहल भी हिंदू कार्ड खेलने से नहीं चूके। ऐसा लगता है कि नेपाल की चुनाव में भी भारत का असर दिखा। वर्ष 2006 से ही नेपाल में दस सरकारें सत्ता में आईं, जिनके तहत 13 प्रधानमंत्रियों को देश में शासन करने का मौका मिला लेकिन राजनीतिक स्थिरता नहीं मिली। अब नेपाल का चुनाव परिणाम ही बताएगा कि नेपाल की जनता क्या चाहती है? राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि शायद इस बार भी नेपाल में त्रिशंकु संसद बनेगा। अगर ऐसा हुआ तो नेपाल के विकास में काफी बाधा उत्पन्न होगी। कोरोना काल में आवाजाही बंद होने के कारण नेपाल के पर्यटन उद्योग पर विपरीत असर पड़ा। मालूम हो कि नेपाल का पर्यटन उद्योग वहां के जीडीपी में चार प्रतिशत का योगदान करता है। नेपाल से बाहर काम करने वाले लोगों से भी नेपाल में काफी मुद्रा आती है। नेपाल के जीडीपी का 25 प्रतिशत हिस्सा बाहर से आने वाले धन से पूरा होता है। केपी शर्मा ओली के शासन में नेपाल चीन की गोद में बैठ चुका था। नेपाली प्रशासन चीन के इशारे पर भारत विरोधी गतिविधियों में लगा हुआ था। यही कारण है कि उनके शासन में भारत के तीन क्षेत्रों को नेपाल का हिस्सा बताकर विवादास्पद नक्शा जारी कर दिया था। महंगाई के कारण नेपाल की जनता ओली के खिलाफ सड़कों पर उतर चुकी थी। भारी विद्रोह के बाद नेपाली कांग्रेस के नेता शेरबहादुर देउबा के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार बनी। इस सरकार में प्रचंड के नेतृत्व वाली वामपंथी पार्टियां भी शामिल हुईं। अब देखना है कि चुनाव परिणाम हिंदुत्व के प्रभुत्व वाले भारत के पक्ष में जाता है या चीन के कथित चेक बुक कूटनीति का शिकार होता है। चीन लगातार नेपाल को अपने कर्ज जाल में फंसाकर शिकंजे में कसता जा रहा है। दूसरी तरफ वह नेपाल के बड़े हिस्से पर कब्जा कर वहां भवन का निर्माण कर चुका है। उस क्षेत्र में नेपाल के अधिकारियों को भी जाने की अनुमति नहीं है। दूसरी तरफ भारत नेपाल को चीन के शिकंजे से बाहर निकालन चाहता है। नेपाल भारत के लिए सामरिक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण है। भारत और नेपाल के बीच वर्षों से बेटी-रोटी का संबंध रहा है। इसके बावजूद वहां की वामपंथी सरकार चीन के इशारे पर भारत को चिढ़ाने का काम कर रही थी। शेरबहादुर देउबा के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस गठबंधन की सरकार के सत्ता में आने के बाद दोनों देशों के संबंधों में सुधार होना शुरू हुआ है। भारत और अमरीका ने मिलकर भी नेपाल को काफी आर्थिक मदद दी है जिससे वहां पनबिजली परियोजना शुरू करने तथा बुनियादी ढांचे को विकसित करने में मदद मिलेगी। भारत अमरीका के सहयोग से नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहता है। वहां की तत्कालीन सरकार भी नेपाल में चीन के झुकाव को खत्म करना चाहती है, किंतु कर्जजाल में फंसे होने के कारण उसकी कुछ मजबुरियां भी है। अगला चुनाव परिणाम यह साबित करेगा कि नेपाल किस ओर जाएगा।