हरकोर्ट बटलर प्राविधिक विश्वविद्यालय की मैकेनिकल इंजीनियरिंग टीम ने ऐसा धुंआ रहित चूल्हा तैयार किया है, जिसकी निर्माण लागत बेहद कम है। चूल्हे में किसान के खेत की पयार, गेहूं के डंठल, सोयाबीन और मूंगफली के छिलके और लकड़ी के बुरादे से तैयार होने वाली पैलेट्स का ईंधन के तौर पर प्रयोग होता है। चूल्हा विज्ञान की आंशिक प्रज्वलन और पूर्ण प्रज्वलन सिद्धांत पर काम करता है। पैलेट्स के जलने के दौरान बनने वाली गैसों को भी ईंधन में परिवर्तित करने से यह चूल्हा ज्यादा कारगर है।
चूल्हा ग्रामीण इलाकों में रसोई गैस एलपीजी का विकल्प भी बनेगा। एचबीटीयू के मैकेनिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर जे भास्कर और केमिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर एके राठौर के साथ तीन छात्रों निर्वेश शुक्ल, आशीष सिंह परिहार व मोइनुद्दीन ने प्रोजेक्ट पर काम किया। चूल्हा विज्ञान के प्रज्वलन सिद्धांत और गैस उपयोग की तकनीक पर आधारित है। आकार में लोहे की उलट कर रखी बड़ी बाल्टी जैसा है। निचले हिस्से में पैलेट्स को जलाते हैं, लेकिन यह आंशिक प्रज्वलन होता है।
इसके जलने से हाइड्रोजन, कार्बन मोनो आक्साइड और कार्बन डाइआक्साइड बनती है। गैसों को नियंत्रित कर चूल्हे के ऊपरी हिस्से में एकत्र किया जाता है। जहां छोटे-छोटे छिद्रों से होकर गैस ईंधन रूप में निकलती है। चूल्हे के ऊपरी हिस्से में आक्सीजन भी पहुंचाई जाती है। जो हाइड्रोजन, कार्बन मोनोआक्साइड और कार्बन डाइआक्साइड के साथ जल उठती है, इस तरह चूल्हे से धुंआ नहीं निकलता। इस स्तर पर विज्ञान का पूर्ण प्रज्वलन सिद्धांत काम करता है। एचबीटीयू ने चूल्हे के पेटेंट के लिए आवेदन किया है। चूल्हा आधा किलो पैलेटस से 45 मिनट तक जलता है, करीब डेढ़ फुट ऊंची लौ निकलती है।
टीम का मानना है कि चार सदस्यों वाले परिवार के लिए सुबह-शाम भोजन तैयार करने और अन्य जरूरतों में अधिकतम आधा किलो पैलेट्स का खर्च होगा। पैलेट्स की बाजार में कीमत 10 रुपए से लेकर 25 रुपए प्रति किलो है। उसका निर्माण धान की पयार, गेहूं के डंठल, लकड़ी बुरादा और अन्य वनस्पतियों से होता है। एचबीटीयू के केमिकल इंजीनियरिंग के प्रो. एके राठौर के अनुसार चूल्हे का व्यावसायिक इस्तेमाल भी हो सकता है। पैलेट्स को किसी अलग स्थान पर जलाया जाए और गैसों को पाइप-लाइन से वहां पहुंचाया जा सकता है जहां चूल्हे के बर्नर हों। इससे जहां पर आग की बड़ी भठ्ठी लगती है वहां पर इसका प्रयोग किया जा सकता है।