इन दिनों सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों और उनके सहयोगी कर्मचारियों पर हमले आम हो गए हैं, जिनसे चिकित्सकों का सुरक्षा को लेकर ङ्क्षचतित होना आम बात है। वैसे चिकित्सकों के खिलाफ कार्यस्थल पर हिंसा कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल के दिनों में इसमें काफी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। सच्चाई तो यह है कि रोगी की खराब सामाजिक आर्थिक स्थिति और उपचार की लगातार बढ़ती लागत से जुड़े स्वास्थ्य पर सरकार के मामूली खर्च ने वर्तमान समय में स्थिति को और खराब कर दिया है। ऐसे में  इस समस्या का समाधान होना अति आवश्यक है। डॉक्टरों के खिलाफ कार्यस्थल पर हिंसा एक वैश्विक घटना है। इसका न तो कोई क्षेत्र है और न ही  कोई धर्म  है। यह न केवल भारत, पाकिस्तान और  बांग्लादेश में बल्कि संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन और चीन जैसे विकसित देशों में भी प्रचलित है।

यह एशिया से ऑस्ट्रेलिया, यूरोप से अमरीका और अफ्रीका महाद्वीपों में फैला हुआ है। ऐसा लगता है कि सरकारी अस्पतालों में मेडिकल स्टाफ, विशेष रूप से जूनियर डॉक्टरों, मेडिकल इंटर्न और अंतिम वर्ष के मेडिकल छात्रों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। कई डॉक्टर एसोसिएशन  ने इस समस्या से निपटने के लिए एक केंद्रीय कानून की मांग कर रहे हैं। अप्रैल 2020 में भारत में एक कानून पेश किया गया था, जिसके तहत स्वास्थ्य देखभाल सेवा से जुड़े पेशेवरों के खिलाफ हिंसा को एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध के रूप में मान्यता दी गई। कोरोना महामारी खत्म होने के साथ ही यह कानून खत्म हो गया। विशेषज्ञों ने  इन घटनाओं के लिए कई समस्याओं की ओर इशारा किया। जैसे-सीमित संसाधन और कर्मचारियों की सीमित संख्या की वजह से गलत प्रबंधन और स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी उच्च लागत, निजी अस्पतालों में लंबे समय तक मरीजों को इलाज के नाम पर रोके रहना वगैरह शामिल हैं।

ये समस्याएं संभावित हिंसक स्थितियों के मुख्य कारण हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में 34 लाख नर्स ही रजिस्टर्ड हैं, वहीं, 13 लाख अन्य पेशेवर हैं, जिनमें डॉक्टर भी शामिल हैं। यह 1.4 अरब की आबादी वाले भारत के लिए काफी कम है, जो हाल ही में चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है। इंडियन जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ के मुताबिक भारत को 2030 तक कम से कम 20 लाख डॉक्टरों की जरूरत होगी। यह अंतर अन्य कई वजहों से बढ़ गया है। जैसे- भारत के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य क्षेत्र के पेशेवरों का विषम अनुपात सरकारी और निजी स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों के बीच भी असंतुलन है, जहां मरीजों को इलाज के लिए अपनी जेब से भुगतान करना पड़ता है।  हिंसा के कई कारण हैं।

  सबसे महत्वपूर्ण है स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी व्यवस्था के प्रति विश्वास में कमी और स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े लाभकारी संस्थानों में बीमारी से जुड़े विशेषज्ञों द्वारा किए जाने वाले इलाज की लागत में वृद्धि  है।  स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ते निजीकरण की वजह से इलाज को लेकर लोगों का खर्च काफी बढ़ गया है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 1.2 फीसदी हिस्सा ही सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है और सार्वजनिक स्वास्थ्य खर्च की वैश्विक रैंकिंग में 152वें स्थान पर है।

इलाज के लिए अपनी जेब से खर्च करने की वजह से कई लोग कर्ज में डूब जाते हैं। हर साल लाखों भारतीय नागरिक गरीबी रेखा के नीचे पहुंच जाते हैं।  वे इलाज के लिए कर्ज लेने और संपत्ति बेचने को मजबूर होते हैं। इस वजह से लोग काफी ज्यादा कर्ज के बोझ में दब जाते हैं और जब इलाज के नतीजे परिजनों के उम्मीद के मुताबिक नहीं होते, तो हिंसा होने की संभावना बढ़ जाती है।  एक सच यह भी है कि लोगों को लगता है कि उन्हें इस मामले में कानूनी तौर पर मदद नहीं मिल पाएगी। इस वजह से परिस्थितियां ज्यादा खराब होने की संभावना बढ़ जाती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह बड़ी समस्या है, इस पर सरकार को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। कारण कि असुरक्षा की भावना के साथ कोई भी डॉक्टर सही ढंग से मरीजों का इलाज नहीं कर सकता।