इतिहास के पन्नों को पलटने से पता चलता है कि साल 1954 में पहली बार अंगदान किया गया था। उस समय रोनाल्ड ली हेरिक ने भाई को किडनी दान कर उसे नया जीवनदान दिया था, वहीं डॉक्टर जोसेफ मरे ने पहली बार किडनी ट्रांसप्लांट किया था। सच्चाई तो यह है कि स्वस्थ व्यक्ति मृत्यु के पश्चात अपने अंगों का दान कर अधिक से अधिक लोगों की जान बचा सकता है। इसमें किडनी, हार्ट, आंखें, अग्नाशय, फेफड़े आदि महत्वपूर्ण अंगों का दान किया जाता है, इससे उन लोगों को अभयदान मिलता है, जिन्हें स्वस्थ अंग की जरूरत रहती है। इस मानवीय कार्य के लिए साल 1990 में डॉक्टर जोसेफ मरे को फिजियोलॉजी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। किसी व्यक्ति की जान बचाने में अंगदान महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

चिकित्सा विज्ञान ने अंगदान के क्षेत्र में सुधार कर सभी मिथकों को समाप्त कर दिया है। अब किसी भी उम्र का व्यक्ति अपने अंगों का दान कर सकता है। वर्तमान समय में लोग अंग दान के महत्व को समझकर अपने अंगों का दान कर रहे हैं। भारत सरकार  की ओर से भी लोगों को अंगदान करने के लिए जागरूक किया जाता है। अंगदान की मांग भारत में अंगों की आपूर्ति से ज्यादा है और मृतक अंगदान दाताओं की उसकी दर प्रति दस लाख आबादी में एक डोनर से भी नीचे हैं। ये संख्या बहुत ही कम है खासतौर पर अमरीका और स्पेन जैसे देशों की तुलना में जहां डोनरों की दर दुनिया में सबसे ऊंची है- प्रति दस लाख लोगों में 40 डोनर हैं, जबकि भारत में ट्रांसप्लांट (प्रत्यारोपण) की जरूरत वाले मरीज और ट्रांसप्लांट के लिए उपलब्ध अंगों की वास्तविक संख्या के बीच अभी भी एक बड़ी खाई है।

नतीजतन जीवित रहने के लिए दान के अंगों की जरूरत वाले कई मरीजों की मौत हो जाती है। डॉक्टर और प्रत्यारोपण के विशेषज्ञों ने अंगों के डोनरों की कमी के लिए कुछ वजहों की शिनाख्त की है, उनमें अंगदान के बारे में जागरूकता की कमी प्रमुख है। प्रैक्टिस से जुड़ी गलत मान्यताएं और बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दे भी शामिल हैं। भारत में अंग प्रत्यारोपण, जीवित डोनरों के जरिए संभव हो पाता है जो कि अपने जीवित रहते ही अपना अंग दान करने पर राजी हो जाते हैं- जैसे कि किडनी। अमरीका के बाद भारत दुनिया में लिविंग डोनर ट्रांसप्लांट वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है- लेकिन मृत दानदाताओं के अंग प्रत्यारोपण के मामले देश में बहुत ही कम हैं।

2019 में 9751 गुर्दा प्रत्यारोपण के 88 फीसदी मामले और 2590 लीवर ट्रांसप्लाट के 77 फीसदी मामले सामने आए,  लिविंग डोनरों यानी जीवित दाताओं से थे। इसकी तुलना में वैश्विक स्तर पर सिर्फ 36 फीसदी किडनी और 19 फीसदी लीवर ट्रांसप्लांट लिविंड डोनरों से मिलते हैं। भारत में बहुत कम प्रत्यारोपण ही मृतकों से निकाले गए अंगों से हो पाता है।

सड़क परिवहन के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल, करीब 150,000 लोग सड़कों पर मारे जाते हैं। इसका मतलब औसतन हर रोज सड़कों पर 1000 से ज्यादा दुर्घटनाएं होती हैं और 400 से ज्यादा लोग दम तोड़ देते हैं। अंग दान में मृत डोनर के अंगों- जैसे हृदय, यकृत (लिवर), गुर्दे (किडनी), आंतें, आंखें, फेफड़े और अग्न्याशय (पैनक्रियाज) को निकाल कर दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है, जिसे जीवित रहने के लिए उनकी जरूरत है।

एक मृत डोनर, जिसे कैडेवर भी कहा जाता है, इस तरह नौ लोगों की जान बचा सकता है। हालांकि हेल्थ प्रोफेश्नल आमतौर पर अंगदान के विषय पर मृतक के परिजनों से बात करने में अटपटा महसूस करते हैं। अंगदान करने के इच्छुक लोग बढ़ भी जाएं तो सभी अस्पतालों में अंग प्रत्यारोपण से जुड़ी तमाम प्रक्रियाओं के लिए जरूरी साजोसामान या उपकरण मौजूद नहीं हैं।

भारत में सिर्फ 250 अस्पताल ही नेशनल ऑर्गन एंड टिश्यू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन (नोटो) से पंजीकृत हैं।  यह संगठन देश के अंग प्रत्यारोपण कार्यक्रम का समन्वय करता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत में अंगदान के प्रति लोगों में जागरुकता का अभाव है। इसके लिए बहुत हद तक लोगों की धाॢमक मान्यताएं जिम्मेवार हैं, जो मरने के बाद की अवधारणा को फलीभूत होने में विश्वास करते हैं।