कृृषि-रसायन वे पदार्थ हैं, जिनका उपयोग मनुष्य  कृृषि पारिस्थितिकी तंत्र के प्रबंधन के लिए करता है। कृृषि रसायनों का इस्तेमाल फसल उत्पादन में सुधार के लिए किया जाता था, लेकिन वर्तमान में इन रसायनों का अधिक एवं असंतुलित मात्रा में प्रयोग हो रहा है। ये रसायन आस-पास के मृदा और जल निकायों में रिसते हैं और पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। कृृषि रसायनों के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से संपर्क में आने वाले किसानों तथा उनके परिवार के सदस्यों का स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है। कृृषि रसायन के नुकसान करने या लोगों को रोगी बनाने की क्षमता उसकी विषाक्तता कहलाती है। यह दो प्रकार की होती है- तीव्र विषाक्तता और दीर्घकालिक विषाक्तता। तीव्र विषाक्तता किसी जीव को अल्प या सीमित समय में नुकसान पहुंचा सकती है और रोगी बना सकती है। दीर्घकालिक विषाक्तता किसी रसायन या कीटनाशक के लंबे समय तक छोटी खुराकों के ग्रहण करने से होती है। कीटनाशक की विषाक्तता की जानकारी लेबल के माध्यम से देना सभी निर्माताओं के लिए अनिवार्य है।

विषाक्तता में चार अलग-अलग रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। तेजी से बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती में रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल का आम लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।  इस मुद्दे पर विशेषज्ञों की तमाम चेतावनियां भी अब तक बेअसर ही रही हैं। खाद्य विशेषज्ञ रासायनिक की जगह जैविक खाद के इस्तेमाल को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं। कृृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रासायनिक उर्वरकों के अधिक मात्रा में उपयोग से न सिर्फ  फसल प्रभावित होती है, बल्कि इससे जमीन की सेहत, इससे पैदा होने वाली फसल को खाने वाले इंसानों और जानवरों की सेहत के साथ ही पर्यावरण पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ता है। अनाज और सब्जियों के माध्यम से इस जहर के लोगों के शरीर में पहुंचने के कारण वे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बन रहे हैं। रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल के कारण देश की 30 फीसदी जमीन बंजर होने के कगार पर हैं। यूरिया के इस्तेमाल के दुष्प्रभाव के अध्ययन के लिए वर्ष 2004 में सरकार ने सोसायटी फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर की स्थापना की थी। उसने भी यूरिया को धरती की सेहत के लिए घातक बताया था।

रासायनिक खाद व कीटनाशकों की सहायता से खेती की शुरुआत यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुई थी। इसका मकसद था, कम जमीन पर अधिक पैदावार हासिल करना। बाद में विकासशील देश भी औद्योगीकरण और आधुनिक खेती को विकास का पर्याय मानने लगे। रासायनिक उर्वरकों की खपत बढऩे से जहां एक ओर लागत बढ़ी, वहीं दूसरी ओर उत्पादकता में गिरावट आने के कारण किसानों के लाभ में भी कमी आई। यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को भी बुरी तरह प्रभावित किया। नाइट्रोजन चक्र बिगडऩे का दुष्परिणाम केवल मिट्टी-पानी तक सीमित नहीं रहा है। नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में यह एक ग्रीनहाउस गैस भी है और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में इसका बड़ा योगदान है। केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 1950-51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरक का प्रयोग करते थे। यह अब कई गुणा बढ़कर 335 लाख टन हो गया है। इसमें 75 लाख टन विदेशों से आयात किया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि रासायनिक खाद के बढ़ते इस्तेमाल से पैदावार तो बढ़ी है, साथ ही खेत, खेती और पर्यावरण पर भी इसका प्रतिकूल प्रभावपड़ा है।

कृृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में कटौती नहीं की गई तो मानव जीवन पर इसका काफी दुष्प्रभाव पड़ेगा। खाद्यान्नों की पैदावार में वृद्धि की मौजूदा दर से वर्ष 2025 तक देश की आबादी का पेट भरना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए इस समस्या पर विचार करने की जरूरत है। साथ ही रासायनिक खाद के उपयोग को कम करने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि रासायनिक पदार्थ के माध्यम से कृृषि भूमि का दोहन प्रकृृति के खिलाफ है। ज्यादा दोहन से जमीन बंजर होती जा रही है। यह सोचने का विषय है।