देश के कई राज्यों में अक्सर गरीब माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को बेचने के मामले सामने आते रहते हैं। कोविड-19 महामारी के बाद इस तरह के मामले पहले से ज्यादा सामने आ रहे हैं। कई अध्ययनों में सामने आया है कि महामारी और लॉकडाउन ने करोड़ों गरीब परिवारों को और गहरी गरीबी में धकेल दिया है। सरकारी एजेंसियों के पास माता-पिता द्वारा बच्चों को बेच देने के मामलों के सटीक आंकड़े नहीं हैं, लेकिन राष्ट्रीय आपराधिक क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक देश में हर साल 70,000 से भी ज्यादा बच्चे लापता हो रहे हैं यानी हर आठवें मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है और ये सरकारीआंकड़े हैं यानी सिर्फ वो मामले जिनकी शिकायत पुलिस से की गई। माना जाता है कि लापता बच्चों की असली संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है। बच्चे बेचे जाएं या लापता हो जाएं, इनमें से बड़ी संख्या में बच्चों की तस्करी की जाती है। उसके बाद उन्हें जबरदस्ती भीख मांगने, आधुनिक गुलामी और देह-व्यापार जैसे धंधों में लगा दिया जाता है।
एनसीआरबी के आंकड़े दिखाते हैं कि 2019 में देश में मानव तस्करी के जितने भी मामले थे, उनमें से सबसे ज्यादा मामले जबरन श्रम, देह-व्यापार, घरों में जबरन काम और जबरन शादी के थे। इसी कड़ी में ओडिशा के मयूरभंज में रहने वाली 25 साल की कर्मी मुर्मू ने अपनी नौ महीने की बेटी को 800 रुपए में एक निःसंतान दंपति को बेच दिया। पुलिस ने उस महिला, बच्ची को खरीदने वाले पति-पत्नी और उनके बीच मध्यस्थता कराने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया है। बच्ची के माता-पिता की एक और बेटी है जिसकी उम्र सात साल है। महिला ने बताया कि उसके पास दूसरी बच्ची का ख्याल रखने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए उसने उसे बेच दिया। गिरफ्तार लोगों में से फूलमनी मरांडी ने बताया कि उन्होंने बच्ची को इसलिए खरीदा, क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी। पुलिस के मुताबिक कर्मी मुर्मू ने अपनी बच्ची को तब बेचा जब उसके पति मुसु मुर्मू काम करने तमिलनाडु गया हुआ था।
मुसु मुर्मू को वापस लौटने पर जब इस बात का पता चला तो उन्होंने खुद ही पुलिस में शिकायत कर दी। मयूरभंज चाइल्ड वेलफेयर समिति के अध्यक्ष जगदीश चंद्र घई का कहना है कि बच्ची को उसके पिता और दादी के हवाले कर दिया गया है। सवाल है कि आज के युग में भी लोगों के समक्ष गरीबी का इस तरह का तांडव है कि वे अपने लख्त-ए-जिगर या लाडलियों को बेचने को मजबूर हैं। यह किसी भी सरकार के लिए शर्म की बात है। सच तो यह है कि सरकारी बजट में गरीबी की पराकाष्ठ झेल रहे लोगों के लिए बजट का सही आबंटन नहीं है। यदि है तो वह सही लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है। दूसरी ओर वर्तमान में बढ़ती जनसंख्या एक बहुत बड़ी समस्या है। बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी की पहली वजह है जो गरीबी का प्रमुख कारण है। जनसंख्या वृद्धि से स्वास्थ्य सुविधाओं एवं वित्तीय संसाधनों में निरंतर कमी होने के कारण लोगों का जीवन स्तर निम्न होता जा रहा है जो प्रति व्यक्ति आय को प्रभावित करने में भी उत्तरदायी है।
जनसंख्या वृद्धि में भारत का दूसरा स्थान है और यही वजह है भारत के पिछड़ेपन का। अतः किसी भी देश की जनसंख्या वहां के लोगों के जीवन स्तर को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि देश में गरीबी है अथवा नहीं। गरीबी निवारण की समस्या को केंद्र में रखना आवश्यक है जिससे इस समस्या को गंभीरता से देखा जाए और इसका निवारण किया जा सके। सरकार को अकुशल कारीगरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के मानक बनाने चाहिए। इसके अलावा मनरेगा योजना के उचित प्रयोग व संसाधनों का विकास करके गरीबी को दूर किया जा सकता है। आर्थिक विकास की गति को तेज करने से गरीबी को दूर किया जा सकता है क्योंकि तीव्र आर्थिक विकास से रोजगारों के अवसरों को भी बढ़ाया जा सकता है और बहुत अधिक संख्या में लोग रोजगार प्राप्त कर सकते हैं। यदि समस्या का समाधान नहीं हुआ तो इसी तरह लोग अपने लाडले और लाडलियों को बेचने को मजबूर होंगे, जो किसी भी तरह से ठीक नहीं है। सरकार की भी जिम्मेवारी है कि वह ऐसी स्थिति में संबंधित लोगों की मदद करे।