गणतंत्र सबसे सफल और सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली है। गणतंत्र में गण की प्रधानता होती है। यानी कि जनता ही सर्वश्रेष्ठ होती है, निर्णायक होती है और भाग्यविधाता होती है। जनता की इच्छा गणतंत्र की प्राथमिकता होती है। लेकिन नेपाल में उल्टा हो रहा है। नेपाल में गणतंत्र के खिलाफ बगावत हो रहा है, विद्रोह हो रहा है, हिंसा हो रही है, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि नेपाल को गृहयुद्ध में धकलने की कोशिश हो रही है। नेपाल की राजधानी काठमांडू में गणतंत्र के खिलाफ हिंसा हुई है और हिंसा में दो लोगों की मृत्यु हुई है, सैकड़ों लोग घायल हुए हैं। काठमांडू की सुरक्षा व्यवस्था चरमरा गई। हिंसक तोड़फोड़ में संपत्तियों का नुकसान हुआ है। गणतंत्र में बैठे लोग यह अंदाजा लगाने में असफल हुए कि उनके खिलाफ आंदोलन इतना हिंसक और भयावह होगा। जब शासक वर्ग अहंकारी होता है, जनाकांक्षी नहीं होता है, जनता की मन:स्थिति को पहचानने की शक्ति नहीं रखता है तो फिर ऐसी ही कठिन और हिंसक परिस्थितियां उत्पन्न होती है, भविष्य की राह कठिन होता है और तकरार से जुझना पड़ता है। गणतंत्र के नेतृत्वकर्ता दलों को अभी अहसास नहीं होगा कि उनके सामने भविष्य की चुनौतियां कितनी खतरनाक है, भयावह और हिंसक है? क्योंकि हिंसक बगावत का जनमत कोई काठमांडू तक सीमित नहीं है, बल्कि गांव-गांव तक पसर गया है। नेपाल के कोने-कोने से मांग उठ रही है कि नेपाल में जारी गणतंत्र को समाप्त किया जाए और नेपाल में राजतंत्र की स्थापना होनी चाहिए, राजतंत्र के साथ ही साथ हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की भी मांग उठी है। नेपाल कभी राजतंत्र और हिन्दू संस्कृृति की धरोहर हुआ करता था। दुनिया का इकलौता हिन्दू राष्ट्र था। चीन परस्त माओवादी हिंसा और आतंक के विस्तार से राजतंत्र की समाप्ति हुई थी। राजतंत्र हिन्दुत्व का प्रहरी होता था। राजतंत्र की समाप्ति के बाद हिन्दू प्राथमिकता का कवच भी समाप्त हो गया। गणतंत्र के विरोधियों का दमन भी एक हिंसक प्रतिक्रिया है, हिंसक राजनीति है और मानवाधिकार का घोर हनन है। गणतंत्र विरोधियों का हिंसक और अमानवीय दमन से कई जटिल समस्याएं खड़ी होंगी और नेपाल की स्थिति विस्फोटक हो सकती है। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया है। राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ही बगावत का नेतृत्व कर रही है। प्रजातंत्र पार्टी को राजतंत्र का समर्थक और आकांक्षी पार्टी माना जाता है। राजशाही के पतन के बाद राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी हाशिए पर चली गई थी और अपना जनाधार खो दी थी। इनकी जगह कम्युनिस्ट पार्टियां ले ली थी। प्रजातंत्र पार्टी हाशिए पर जरूर बैठी हुई थी पर प्राणहीन नहीं हुई थी। अवसर की तलाश में थी। गनतंत्र को अलोकप्रिय होने का इतंजार कर रही थी। गणतंत्र की अभिलाषा के दौर में राजतंत्र समर्थक किसी पार्टी के लिए कोई अवसर की उम्मीद हो ही नहीं सकती है। करीब दो दशक तक प्रजातंत्र पार्टी को इतंजार करना पड़ा। इस दौरान माओवादी और कम्युनिस्ट पार्टियां सत्ता में आती-जाती रही हैं और अच्छा शासन देने की जगह भ्रष्टाचार और अपनावाद चलाकर नेपाल की जनता की कब्र खोदने जैसे ही कार्य किए। सत्ता की भागीदारी में जनता की भलाई होनी चाहिए, जनता की इच्छाओं का सम्मान होना चाहिए, विकास और प्रगति के मार्ग पर चलने के लिए होना चाहिए। पर पुष्प कुमार दहल और कोली जैसे कम्युनिस्ट शासकों ने जनता की इच्छाएं पूरी करने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। राष्ट्रीय आंकाक्षा के विपरीत कार्य कर अलोकप्रियता को ही अपने सिर पर लादने जैसे कुकृृत्य किए। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि नेपाल का गणतंत्र खिलने की जगह मुरझाने लगा, जवान होने के पहले ही दम तोड़ने लगा, जनता का बोझा बन गया, अलोकप्रियता और भ्रष्टचार का प्रतीक बन गया, बईमानी का बदबूदार उदाहरण बन गया। जबकि गणतंत्र की स्थापना की बहुत लंबी लड़ाइयां लड़ी गई थी। कई दशकों तक हिंसक और अहिंसक आंदोलन चले थे। शांति प्रिय लोग जहां शांति से विरोध कर रहे थे वहीं हिंसक प्रबृति के लोगों ने हिंसा का खेल खेल रहे थे। खासकर माओवाद का आंदोलन काफी चर्चित था। माओवाद ने कई दशकों तक हिंसक आंदोलन चलाया, नेपाली सेना का नरसंहार किया, नेपाल के कमजोर नागरिकों का खून बहाया। फिर भी नेपाल में माओवाद और कम्युनिस्टवाद के लिए जगह नहीं थी। आम जनता कम्युनिस्ट वाद और माओवाद को अपना हितैषी मानने के लिए तैयार नहीं थे। राजतंत्र में उनकी आस्था थी, उनका विश्वास था। यही कारण था कि कम्युनिस्ट और माओवाद की हिंसा का भीषण दौर को भी झेल लिया था। जबतक राजा महेन्द्र जीवित थे, तबतक माओवादियों को कोई जगह नहीं बन रही थी और जनतंत्र की उम्मीद भी मजबूत नही हो रही थी। क्योंकि राजा महेन्द्र बहुत ही लोकप्रिय थे और जनाकांक्षी थे और स्वार्थ रहित शासक थे। लेकिन नेपाल के लिए दुर्भाग्य यह हुआ कि राजा महेन्द्र का दुखद अंत हो गया। साजिशन उनका और उनके वंश का हिंसक अंत हो गया। राजा महेन्द्र का दुखद अंत नहीं होता तो फिर राजतंत्र बना रहता और राजशाही जनता के लिए आकांक्षी भी बनी रहती। राजा महेन्द्र का संहार के कारण कम्युनिस्ट और माओवाद मजबूत हुए। संस्कृृति भंजक राजनीतिक प्रबृतियां जनाक्रोश को बढावा दे रहा है, जनतंत्र को अलोकप्रिय बना रहा है। जनतंत्र की कब्र खोद रहा है और राजतंत्र के लिए जगह बना रहा है। कोली जहां मार्क्सवादी हैं वहीं पुष्प कुमार दहल माओवादी हैं। ये दोनों की समझ है कि सत्ता बन्दूक की गोली से निकलती है। यह मंत्र पुराना हो चुका है। सत्ता बन्दूक की गोली से निकलती है को समझने और मानने वालों का अंत बहुत ही खतरनाक होता है। आधुनिक युग में इसका कोई स्थान नहीं है। सोवियत संघ ढह चुका है। चीन पंूजीवाद को अपने सिर पर लाद लिया है। जबकि वेनुजुएला जैसा देश अमेरिका का सहार करने और कम्युनिस्ट वाद का झंडा फहराने का सपना देखते-देखते दिवालिया हो गया, भूखे और नंगे होकर दुनिया के लिए बोझ बन गए। उत्तर कोरिया की जनता तानाशाही रवैए के कारण त्राहिमाम कर रही है। कम्युनिस्टों और माओवादियों ने नेपाल के हिन्दू संस्कृृति का दमन करने और संहार करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। हिन्दू राष्ट्रवाद को दमन कर दिया गया, संहार कर दिया गया। जबकि नेपाल की जनता हिन्दुत्व के प्रति आस्था रखती थी।
-नई दिल्ली,
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