आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए विपक्षी पार्टियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने के लिए टीम इंडिया का गठन किया है। नए गठबंधन का नाम इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस (इंडिया) रखा गया है। इंडिया नामकरण के पीछे विपक्ष की सोची समझी राजनीति काम कर रही है। बेंगलूरू में 26 विपक्षी दलों के प्रमुखों की बैठक के बाद यह निर्णय लिया गया है। इस बैठक में यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एवं पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, राष्ट्रीय जनता पार्टी के प्रमुख लालू प्रसाद यादव एवं उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, तमिलनाडू के मुख्यमंत्री स्टॉलिन, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, एनसीपी के सुप्रीमो शरद पवार सहित अनेक विपक्षी पार्टियों के सुप्रीम नेता शामिल हुए।

विपक्षी दलों का मानना है कि नए गठबंधन का नाम इंडिया रखने से भारतीय जनता पार्टी उसका गलत अर्थ नहीं निकाल पाएगी। कई मौके पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने विभिन्न पार्टियों के नाम का अलग अर्थ निकाल कर जनता के सामने गलत छवि पेश करने की कोशिश की है। विपक्षी दलों का मानना है कि आगामी चुनावों के दौरान भाजपा व्यक्तिगत हमला कर सकती है, किंतु इंडिया के नाम पर कोई ओछी बयान देने से बचेगी। बिखरती हुई विपक्षी पार्टियों ने लोकतंत्र को बचाने के नाम पर नए गठबंधन का नाम घोषित करने के साथ ही दिल्ली में सचिवालय स्थापित करने तथा 11 सदस्यों की समन्वय समिति गठित करने का निर्णय लिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि तमाम मतभेदों के बावजूद विपक्षी पार्टियां एक मंच कर क्यों इकट्ठा हो रही हैं? सबसे बड़ा कारण यह है कि सीबीआई एवं ईडी जैसी एजेंसियां विपक्षी नेताओं के भ्रष्टाचार एवं अनियमितता की पोल खोलने में लगी हुई है। सोनिया गांधी, राहुल गांधी, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव सहित अनेक नेताओं के नाम किसी न किसी एजेंसियों के रडार पर हैं। जिनके खिलाफ जांच चल रही है या कई मामले में सजा भी सुनाई जा चुकी है।

इन पार्टियों का मानना है कि अगर एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला नहीं किया गया तो स्थिति और खराब हो सकती है। दूसरी बात यह है कि केंद्र द्वारा दिल्ली, पश्चिम बंगाल, बिहार एवं कुछ अन्य राज्यों में दखल से भी विपक्षी पार्टियां परेशान हैं। उनका मानना है कि इसका एकजुट होकर विरोध करना ही हेागा। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन के सत्ता में आने के बाद से ही भाजपा का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है, जिस कारण विपक्षी पार्टियों का दायरा सिमटता जा रहा है। वर्ष 2014 में भाजपा के पास 282 सीटें थीं, जो 2019 में बढ़कर 303 हो गई। किसी भी पार्टी को चलाने के लिए फंड की जरूरत होती है। अगर विपक्षी पार्टियां ज्यादा दिन तक सत्ता से दूर रहेंगी तो उनको फंड मिलना भी मुश्किल हो जाएगा। ऐसी स्थिति में उनकी राजनीतिक गतिविधियां प्रभावित होंगी। देश की अनेक राजनीतिक पार्टियां जिनमें ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियां हैं, का आधार जातीय सियासत पर टिका हुआ है। भाजपा सत्ता में आने के बाद दलित, महादलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग तथा सवर्णों में सेंध लगा चुकी है। ऐसी स्थिति में कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व के सामने संकट पैदा होने लगा है। बहुत सी पार्टियां इन जातीय सियासत के आधार पर शासन करती रही हैं। इन पार्टियों को लग रहा है कि अगर मिलकर मुकाबला नहीं किया गया तो भविष्य में उनके लिए बड़ा सियासी संकट पैदा हो सकता है।

  विपक्षी पार्टियों की अगली बैठक मुंबई में होगी, जिसमें और आगे की रणनीति तथा आगामी चुनावों में उठाए जाने वाले प्रमुख मुद्दों पर विचार-विमर्श हो सकता है। विपक्षी पार्टियों के सामने सबसे बड़ी समस्या तब आएगी, जब सीटों के बंटवारे के लिए बातचीत आरंभ होगी। कई राज्यों में कांग्रेस तथा क्षेत्रीय पार्टियों के संबंध इतने मधुर नहीं हैं, जिस पर आसानी से सहमति बन सके। पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव के दौरान कांग्रेस तथा माकपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच जिस तरह तलवारें खींची, वह बताने के लिए काफी है कि आगे क्या होने वाला है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी कांग्रेस को तवज्जो देने के मूड में नहीं है। इसी तरह की स्थिति कुछ अन्य राज्यों में हो सकती है। अब देखना है कि बेंगलुरू में हुई विपक्षी पार्टियों की बैठक के बाद विपक्ष कितना सशक्त हो पाता है।