राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। विपक्ष की पटना और बेंगलुरु में हुई बैठक ने भाजपा में हलचल बढ़ा दी है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भाजपा के लिए चुनाव जीतना अब तक तो बहुत मुश्किल नजर नहीं आ रहा लेकिन उसके लिए चैलेंज है कि कैसे वो अपनी सीटों को कम होने से रोके। जानकारों का कहना है कि अगर भाजपा की 40-50 सीटें कम हो जाती हैं तो इससे देश की तमाम संस्थाओं में ये संदेश चला जाएगा कि भाजपा को लेकर अब वो माहौल नहीं रहा जो 2014 से 2019 के चुनावों में था। भाजपा ऐसा होने के रिस्क को कम करने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है। उधर विपक्ष के लिए ये लोकसभा चुनाव करो या मरो वाले स्थिति है क्योंकि अगर तीसरी बार भाजपा सत्ता में आई तो ये पार्टियां खत्म होने की कागार पर आ जाएंगी।

गौरतलब है कि साल 1998 में जब एनडीए बना था तो इसमें 24 पार्टियां शामिल हुई थीं। लेकिन उस समय के एनडीए और आज के एनडीए में काफी बदलाव आ चुका है। आज भाजपा के साथ शिवसेना (अविभाजित), जनता दल यूनाइटेड, अकाली दल जैसे उसके सहयोगी रहे दल साथ नहीं हैं। ऐसे में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा एनडीए को एकबार फिर बनाने और इसका विस्तार करने में जुट चुकी है। भाजपा की हालिया कोशिश उत्तर प्रदेश में रंग लाई है जहां पूर्वांचल की राजनीति में बड़ा नाम ओम प्रकाश राजभर ने लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर पाला बदल लिया है और अब फिर एनडीए में शामिल हो चुके हैं। चार साल पहले ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने एनडीए से रिश्ता तोड़ा था लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा इस पुराने सहयोगी को मनाने में कामयाब हुई है। ओमप्रकाश राजभर की एनडीए में एंट्री ना सिर्फ ये बताता है कि जातीय समीकरण की राजनीति में वो कितना दम रखते हैं बल्कि ये पता चलता है कि कैसे भाजपा छोटे-छोटे दलों को अपने करीब लाने में जुटी हुई है।

कर्नाटक में हुई हार के बाद भाजपा ये समझ चुकी है कि उसे पार्टियों के साथ की जरूरत है। खासकर दक्षिण में जहां भाजपा उत्तर भारत के मुकाबले कमजोर है और क्षेत्रीय दल काफी दक्षिण में 130 लोकसभा सीटें हैं। यहां भाजपा की मुख्य सहयोगी पार्टी एआईएडीएमके है जिसने 2019 के लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में 39 सीटें जीती थीं। खबर है कि तेलंगना में भाजपा टीडीपी के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत चल रही है। भाजपा ने बीते लोकसभा चुनाव में खुद के दम पर 303 सीटें जीती थीं, भाजपा का वोट शेयर 37 फीसदी था। ऐसे में उसे आखिर गठबंधन की जरूरत क्यों है? जानकारों का कहना है कि भले ही  भाजपा आज भी इस स्थिति में नजर आती है कि वो सरकार बना सकती है लेकिन सबसे अहम ये है कि विपक्ष जिस तरह से एकजुट हो रहा है उसे देखते हुए भाजपा एनडीए का वर्चुअल पुर्नगठन कर रही है। भाजपा कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, उसे पता है कि नरेंद्र मोदी जितनी पॉपुलैरिटी वाला नेता देश में कोई और नहीं है लेकिन फिर भी वो तमाम छोटे दलों को दिल्ली की बैठक में बुलाया था। भाजपा का कहना है कि विपक्ष के 26 के सामने 38 पार्टियां उसके डिनर मीटिंग में शामिल हुई  हैं। पटना में बैठक के बाद भाजपा ने ये हलचल तेज की है। राजनीति नजरिए का खेल है।

ये संदेश देना ज्यादा अहम माना जाता है कि किसके पास कितने पार्टियों का समर्थन है। राजनीतिक विश्लेषक ये भी कहते हैं कि बीते दो आम चुनाव में देखा गया है कि जनता नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट देती है और उनकी लोकप्रियता में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियां भी इस बात को समझते हुए एनडीए में जाती हैं। इस साल मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की थी, इस बैठक में एक खास संदेश दिया गया कि क्षेत्रीय दलों के बीच भाजपा को लेकर एक धारणा बन रही है कि वह इन पार्टियों को 'सहयोगी दल बनाने के लिए बहुत इच्छुक नहीं है।Ó इस धारणा को तोडऩा था। दरअसल भाजपा के संदर्भ में छोटी पार्टियों को एक डर ये है कि अगर वो अपने दम पर अधिक सीटें ले आईं तो उसे इन दलों की जरूरत नहीं होगी पर अतीत में सबने देखा है कि भाजपा ने अपने पुराने और घनिष्ट सहयोगियों को भी बांध कर रखने की कोशिश की। भाजपा नेता ने एक बार पहले कहा था कि अगर भाजपा को टीडीपी और वाईएसआरसीपी के बीच चयन करना है, तो अधिकांश नेता टीडीपी के साथ गठबंधन करने के इच्छुक होंगे। इसका सीधा सा कारण यह है कि हम अतीत में गठबंधन में रहे हैं और यह एक अच्छा कामकाजी रिश्ता था। पार्टी को पता है कि वाईएसआरसीपी संसद में भाजपा की मदद करती है, लेकिन वह औपचारिक रूप से एनडीए में शामिल होने या भाजपा को आंध्र प्रदेश में चुनाव लडऩे के लिए जगह देने की इच्छुक नहीं हो सकती है।

अशोक भाटिया

मुंबई

मो. :  9221232130